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________________ से बाधित होती हैं। जब पर्याय को गौणकर द्रव्य को प्रधान बनाया जाता है, तब अनित्यत्व तत्त्व नित्यत्व को प्राप्त होता है और जब द्रव्य को गौणकर पर्याय को प्रधानता दी जाती है, तब नित्य तत्त्व अनित्यत्व को प्राप्त होता है 1 प्रत्येक पदार्थ तीन रूप में सत् है । अर्थरूप, ज्ञानरूप और शब्दरूप । ज्ञान का विषय चराचर जगत् है किन्तु ज्ञान तदाधीन नहीं है। न ज्ञान ज्ञेय में जाता है और न ज्ञेय ज्ञान में आता है। दोनों स्वतंत्र हैं, फिर पदार्थ चिन्मय भासित होते हैं। इसीप्रकार शब्द सत्ता पुद्गल पर्यायरूप है। तथापि उन शब्दों की वाचक शक्ति आपके ज्ञान एक कोने में पड़ी रहती है। इसी प्रसंग में बाह्य पदार्थ का अपलाप करने वाले बौद्धों का निराकरण किया गया है। जिनशासन स्याद्वादमुद्रा से प्रतिष्ठित होने के कारण एकपदार्थ में एक साथ रहने वाले विरोधी धर्मों की अवस्थिति को स्वीकार करता है। आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी इसका प्रतिपादन करते हुए कहते हैं - अवस्थितिः सा तव देव दृष्टेर्विरुद्धधर्मेष्वनवस्थितिर्या । स्खलन्ति यद्यत्र गिरः स्खलन्तु जातं हि तावन्महदन्तरालम् ॥ ८ ॥१९ लघुतत्त्वस्फोट हे देव ! विरुद्ध धर्मों में जो एक के होकर नहीं रहना है, वह आपकी दृष्टि की स्थिरता है - आपके सिद्धान्त की स्थिरता है। यदि इस विषय में वचन स्खलित होते हैं तो स्खलित हों क्योंकि दोनों - आप तथा अन्य की दृष्टि में बहुत अन्तर -भेद सम्पूर्णरूप से सिद्ध हो गया । जिनेन्द्र भगवान द्वारा ही स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रणयन किया गया है जैसा कि आठवीं स्तुति में आचार्यवर्य ने लिखा भी है - गिरां बलाधान विधान हेतो: स्याद्वादमुद्रामसृजस्त्वमेव । तदङ्कितास्ते तदतत्स्वभावं वदन्ति वस्तु स्वयमस्खलन्तः ॥ २० ॥८ लघुतत्त्वस्फोट हे भगवन् ! शब्दों में दृढ़ता स्थापित करने के लिए आपने ही स्याद्वाद मुद्रा को रचा है, इस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया है। इसलिए उस स्याद्वादमुद्रा से चिन्हित वे शब्द स्खलित न होते हुए अपने आप वस्तु को तत्-अतत् स्वभाव से युक्त कहते हैं । संसार के पदार्थ विधि और निषेध दोनों रूपों से कहे जाते हैं अर्थात् स्वकीय चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति आदि विधिरूप हैं और परचतुष्टय की अपेक्षा निषेध आदि नास्तिरूप हैं। पदार्थ का कथन करने वाले शब्द अभिधा शक्ति के कारण नियंत्रित होने से दो विरोधी धर्मों में से एक को कहकर क्षीणशक्ति हो जाते हैं दूसरे धर्म को कहने की उनमें सामर्थ्य नहीं रहती। एक अंश के कहने से वस्तु का पूर्णस्वरूप कथन में नहीं आ पाता । इस स्थिति में हे भगवन् ! आपके अनुग्रह से स्याद्वाद का - कथञ्चित्वाद का आविर्भाव हुआ । उसके प्रबल समर्थन से शब्द दोनों स्वभावों से युक्त तत्त्वार्थ का व्याख्यान करने में समर्थ होते हैं । अर्थात् स्याद्वाद का समर्थन प्राप्त कर ही शब्द यह कहने में समर्थ होते हैं कि स्व की अपेक्षा से पदार्थ अस्तिरूप है । पर की अपेक्षा से नास्ति रूप है । ' स्याद्वाद और अनेकान्त आचार्य अमृतचन्द्र के प्रिय प्रतिपाद्य हैं, उन्होंने इस स्तुतिकाव्य में तो बाहुल्यरूप से इस जैनदर्शन के प्राणतत्त्व की मीमांसा की है और अपने द्वारा की हुई टीकाओं में अनेकान्त-स्याद्वाद को ही सर्वप्रथम नमन किया। स्मरण किया है । " Jain Education International महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/32 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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