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________________ विकल्प समाप्त होने पर जैसे ज्ञान-ज्ञेय का अभिन्नपना उत्पन्न होता है, उसीप्रकार दृष्टा और दृश्य का भी अभेद होता है। आत्मा ज्ञान अथवा दर्शन मात्र रूप से सुशोभित होता है जैसा कि स्तुतिकार ने भी कहा है - स्वस्मै स्वतः स्वः स्वमिहैकभावं स्वस्मिन् स्वयं पश्यति सुप्रसन्नः।। अभिन्नदृग्दृश्यतया स्थितोऽस्मान्न कारकाणीश दृगेव भासि ।।९/९ ।। लघुतत्त्वस्फोट हे भगवन् ! यहाँ अत्यन्त निर्मलता को प्राप्त हुए आप अपने आपमें, अपने आपके लिए, अपने आपसे, एक अपने आपको, अपने आपके द्वारा देख रहे हैं - निर्विकल्प रूप से जान रहे हैं। इसप्रकार हे नाथ ! आप दृष्टा और दृश्य के अभेद से स्थित हैं, इसलिए दृष्टि क्रिया के कारक नहीं है आप दर्शनरूप ही सुशोभित हो रहे हैं। शुद्धात्मा में क्रिया-कारक, काल और देश का विभाग नहीं पाया जाता है। चेतनद्रव्य से ही परिणमन करता है। भाव और भाववान् में अभेद भी होता है। गुण-गुणी में प्रदेश भेद न दिखलाकर स्तुति की है। वस्तु का स्वभाव विधि और निषेधरूप है। स्वचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु विधिरूप होती है और परचतुष्टय की अपेक्षा निषेधरूप होती है। ज्ञान में ज्ञेय है यह विधिपक्ष है और ज्ञान में ज्ञेय नहीं है यह निषेध पक्ष है। "ज्ञान में ज्ञेय का विकल्प आता है" इस अपेक्षा से विधि पक्ष की सिद्धि होती है और “ज्ञान में ज्ञेय के प्रदेश नहीं आते हैं" इस अपेक्षा से निषेधपक्ष की सिद्धि होती है। जिसप्रकार दर्पण में पड़ा हुआ मयूर का प्रतिबिम्ब दर्पण से भिन्न नहीं है, उसीप्रकार ज्ञान में आया हुआ ज्ञेय का विकल्प ज्ञान से भिन्न नहीं है इसप्रकार ज्ञान और ज्ञेय में अभेद है किन्तु दर्पण और मयूर का विचार करते हैं तब दर्पण भिन्न और मयूर भिन्न ज्ञात होता है, इसीप्रकार जब ज्ञान और उसमें आने वाले ज्ञेय पदार्थों का विचार किया जाता है तब ज्ञान और ज्ञेय पृथक्-पृथक् प्रतीत होते हैं । हे भगवन् ! आपका ज्ञान अपनी अनन्त सामर्थ्य से समस्त पदार्थों को जानता है अर्थात् वे समस्त पदार्थ विकल्प की अपेक्षा आपके ज्ञान में आते हैं तो भी उनके साथ आपके ज्ञान अथवा गुण-गुणी की अभेद विवक्षा से आपमें संकरभाव प्राप्त नहीं होता। इसका यही तात्पर्य है कि आप पदार्थरूप नहीं होते और पदार्थ आप रूप नहीं होते। आप सदा स्व-पर के विभाग को धारण करते रहते हैं। द्रव्य में एक-अनेक, नित्यानित्य की व्यवस्था को दर्शाने के लिए ही स्तुति के माध्यम से अपने आराध्य में एकत्व-अनेकत्व नित्यानित्यत्व दर्शाया गया है - अनेकोऽपि प्रपद्य त्वामेकत्वं प्रतिपद्यते। एकोऽपि त्वमनेकत्वमनेकं प्राप्य गच्छति ।।१८।११ अर्थात् अनेक भी आपको प्राप्तकर एकपने को प्राप्त होता है और आप एक होकर भी अनेक को प्राप्त कर अनेकपने को प्राप्त हो रहे हैं। यहाँ स्पष्ट है कि गुण और पर्याय संख्या की अपेक्षा अनेक हैं तथा एक द्रव्य में अवस्थित रहते हैं उसकी अपेक्षा एक है। साक्षादनित्यमप्येघाति त्वां प्राप्य नित्यताम्। त्वं तु नित्योऽप्यनित्यत्वमनित्यं प्राप्य गाहसे ।।९ ॥११ लघुतत्त्वस्फोट यह पर्याय रूप तत्त्व साक्षात् अनित्य होकर भी द्रव्य स्वरूप आपको प्राप्त कर नित्यपने को प्राप्त होता है और आप नित्य होकर भी अनित्यरूप पर्याय को प्राप्तकर अनित्यपने को प्राप्त होते हैं। यह वास्तविक सिद्धान्त है कि द्रव्य पर्याय से तन्मय होकर रहता है, द्रव्य की त्रैकालिक शुद्धता इसी महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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