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________________ निश्चय-व्यवहार - आत्मस्वरूप को सुखमय बनाने के लिए उसके परिज्ञान की महती आवश्यकता है। ज्ञान प्रमाण और नयों से होता है। ज्ञान की समीचीनता का नाम ही प्रमाण है। कहा भी है – 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' । प्रमाण के अंशों को नय कहते हैं । 'प्रमाणांशाः नयाः उक्ताः' । सारांश में कह सकते हैं कि ज्ञान की समीचीनता, चाहे वह समग्र रूप में हो अथवा आंशिक रूप में, आत्मस्वरूप को समझने का उपाय है। 'नयतीति नय:' अर्थात् जो किसी एक लक्ष्य पर पहुँचता है, ले जाता है, वह नय है । यदि लक्ष्य की ओर अग्रसर होना है तो नयों की आवश्यकता है। नयों के दो काम इस प्रकार ज्ञात होते हैं - एक तो ज्ञान में सहायक होना, दूसरा अग्रसर कराना । अन्य शब्दों में क्रिया या गतिशीलता सम्मुख ज्ञान के साधनों को नय कहा जा सकता है। अनेकान्त जैन दर्शन का मूल है। वस्तु अनन्त धर्म वाली है। उन धर्मों को विभिन्न दृष्टियों से ही जाना जा सकता है, इन्हीं दृष्टियों को नय कहते हैं। पदार्थ की यथात्मकता के सफल अवबोधक होने से सभी नय सार्थक हैं। आगम और अध्यात्म इन दो रूपों में श्रुतज्ञान को विभक्त किया जाता है, अलग-अलग दो श्रुतज्ञान निरपेक्ष नहीं हैं। दोनों का हर काल में सहयोगी निरूपण है । इसीलिए आगमिक नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक तथा आध्यात्मिक नय निश्चय और व्यवहार ३६ में अंक ३ और ६ के समान विपरीत दिशोन्मुख न होकर ६३ में परस्पर सहयोगाकांक्षी के रूप में अवस्थित हैं। किसी अपेक्षा से आगम में वर्णित द्रव्यार्थिक नय को निश्चयनय और पर्यायार्थिक नय को व्यवहारनय कह सकते हैं। आचार्यों ने अध्यात्म में स्थान-स्थान पर निश्चय और Jain Education International पं. शिवचरनलाल जैन व्यवहार इन दो नयों का नाम लेकर प्रयोग किया है। अपेक्षा को स्पष्ट करना उनकी दृष्टि में सर्वत्र उपयोगी रहा है ताकि पाठक को भ्रम अथवा छल न हो। परिभाषाएँ - १. निश्चिनोति निश्चीयते अनेन वा इति निश्चयः जो तत्त्व परिचय कराता है अथवा जिससे अर्थावधारण किया जाता है या निश्चित किया जाता है, वह निश्चय है । - २. निश्चयनय एवम्भूतः निश्चयनय एवम्भूत है। (श्लोकवार्तिक १-७) ३. परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः - परमार्थ के विशेषण से संशयादि की रहितता होने से निश्चय है । ( प्रवचनसार, ता.वृ.-९३) ४. अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः - जो अभेद और अनुपचार से वस्तु का निश्चय कराता है, वह निश्चय है । (आलापपद्धति ९) ५. जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठे अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणी हि । (स.प्रा.) जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष (सामान्य) और असंयुक्त देखता है, निश्चय (शुद्ध निश्चनय) जानना चाहिए। वह ६. आत्माश्रितो निश्चयोनयः - ( स. सा. आ. - २७२) आत्मा ही जिसका आश्रय है, वह निश्चय है । ७. अभिन्नकर्तृ कर्मादि विषयो निश्चयो नयः - कर्ता, कर्म आदि को अभिन्न विषय करने वाला निश्चय नय है । ( तत्त्वानुशासन / ५९, अनगार धर्मामृत / १/१०२) महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/17 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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