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________________ व्यवहार नय १. पडिख्वं पुण वयणत्थणिच्छयो तस्स ववहारो -वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना व्यवहार नय है । (धवला १ / १ ) — — २. संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधि पूर्वकमवहरणं व्यवहारः – संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहार है । (सर्वार्थसिद्धि १/३३) ३. भेदोपचराभ्यां व्यवहरतीति व्यवहारः - जो भेद और उपचार से व्यवहार करता है, वह व्यवहार है। ४. जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स । सो ववहारो भणियो ....... एक अभेद वस्तु में जो धर्मों का अर्थात् गुणपर्यायों का भेदरूप उपचार करता है, वह व्यवहार नय कहा जाता है। ५. पराश्रितो व्यवहारः – परपदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है। (स.प्रा. आत्मख्याति २७२ ) ६. व्यवहरणं व्यवहारः स्यादिति शब्दार्थो न परमार्थः - स यथा गुणगुणिनो सदभेदे भेदकरणं स्यात् । विधिपूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है । यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है, परमार्थ नहीं । जैसा कि यहाँ पर गुण और गुणी में सत् रूप से अभेद होने पर भी भेद करता है, वह व्यवहार नय है। (पंचाध्यायी/पू./५२२) यहाँ अशुद्ध निश्चय नय से आत्मा को चेतन परिणाम (भावकर्म राग-द्वेष आदि) का कर्त्ता बताया है तथा शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध भावों का कर्त्ता बताया है। यद्यपि यहाँ स्पष्ट रूप से अशुद्ध निश्चय नय का उल्लेख नहीं किया गया है, तथापि शुद्ध नय से अन्य ८. जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो निश्चय नय निरूपित किया गया है, वह अशुद्ध निश्चय व्यवहारो । ( छहढाला) नय ही है। ७. व्यवहारनयो भिन्न कर्तृकर्मादिगोचरः व्यवहार नय भिन्न कर्ता - कर्मादि विषयक है। उपरोक्त परिभाषाएँ निश्चय और व्यवहार के स्वरूप को समझने में उपयोगी हैं। इन नयों की परिभाषाएँ अध्यात्म में बहुत मिलती हैं। सब सापेक्ष हैं। यहाँ दोनों का पृथक्-पृथक् एवं समन्वित वर्णन किया जाता है। निश्चय नय - जिससे मूल पदार्थ का निश्चय किया जाता है, वह निश्चय नय है । यह नय वस्तु के मूल तत्त्व को देखता है । यद्यपि परपदार्थों की संगति भी वास्तविक है तथापि यह उसको दृष्टिगत नहीं करता है । जैसे आत्मा और पुद्गल संसार में मिले हुए द्रव्य हैं। ऐसी स्थिति में भी शरीरादि परद्रव्यों को पृथक् ही मानते हुए केवल आत्मद्रव्य को ही ग्रहण करता है। पर्यायों पर भी दृष्टि नहीं डालता है। आगम भाषा का द्रव्यार्थिक नय अपेक्षा दृष्टि से निश्चय नय माना जा सकता है किन्तु पूर्णतया दोनों का स्वरूप एक नहीं है क्योंकि वहाँ व्यवहार को भी द्रव्यार्थिक माना गया है। स्वाश्रितो व्यवहारः • इस लक्षण के अनुसार इस नय का प्रयोजन स्वद्रव्य है । निश्चय नय दो प्रकार का है । १. शुद्ध निश्चय नय, २. अशुद्ध निश्चय नय । शुद्ध द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है वह शुद्ध निश्चय नय है। इसे आगम भाषा में वर्णित परमभावग्राही शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कह सकते हैं। अशुद्ध द्रव्य जिसका प्रयोजन है, वह अशुद्ध निश्चय नय कहलाता है। आगम भाषा में जिसे कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय कह सकते हैं। वृहद्रव्यसंग्रह में उपरोक्त दो नयों का प्रयोग देखिये पुग्गल कम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदण कम्माणादा सुद्धणया सुद्ध भावाणं ॥ ८ ॥ Jain Education International समयसार कलश १० में शुद्ध नय का लक्षण देखियेआत्मस्वभावं परभावभिन्नं आपूर्ण माद्यन्तविमुक्तमेकम् । विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति॥ आत्म स्वभाव को परभावों से भिन्न, आपूर्ण, आदि अन्त रहित, एकरूप तथा संकल्प विकल्प जाल महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2 / 18 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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