SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ने एक ही द्रव्य में किया है। निमित्त-नैमित्तिक भाव दो जाती है; मिथ्यादृष्टि जीव संकल्प और विकल्प में फँसा द्रव्यों में बनता है। इस विषय में कुन्दकुन्द स्वामी कहते रहता है पर सम्यग्दृष्टि जीव उनसे उभरने लगता है। हैं कि जीव के परिणाम-रागादि भावरूप हेतु को पाकर विकल्प उतना हानिकारक नहीं होता जितना कि पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमन करते हैं और पुद्गल संकल्प। विकल्प तो श्रुतज्ञान का अंश है परन्तु कर्म को निमित्त पाकर जीव भी रागादिरूप परिणमन संकल्प मोहजनित इच्छाओं का जाल है। सम्यग्दृष्टि करता है। जीव का विभाव परिणमन अनिमित्तक नहीं की इच्छाओं का जाल आगे-आगे कम होता जाता है। हैं। यथा - प्रथम गुणस्थान से लेकर तृतीय गुणस्थान तक के जीव जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुगला परिणमंति। की इच्छाएँ दर्शनमोह के साथ रहती हैं परन्तु चतुर्थादि पुग्गल कम्मणिमित्तं तहेव जीवोवि परिणमइ ।। गुणस्थानवी जीव की इच्छाएँ मात्र चारित्रमोह जनित होती हैं, अतः उनका रूप ही दूसरा होता है। सम्यग्दृष्टि ४. चौथा प्रमेयत्व गुण है जो प्रमाण का विषय भोजन तो करता है परन्तु भोजन में अमुक वस्तु ही होना है अर्थात् किसी न किसी के ज्ञान का विषय है वह प्रमेय चाहिए, ऐसा भाव उसका नहीं होता । सम्यग्दृष्टि कपड़ा कहलाता है। संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो तो पहनता है परन्तु ऐसा ही कपड़ा होना चाहिए यह किसी के ज्ञान का विषय न हो। उसका अभिप्राय नहीं रहता। सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान ५. पाँचवाँ अगुरुलघुत्व गुण है इसका अर्थ है और वैराग्य की शक्ति नियम से होती है, अतः इन - एक द्रव्य का दूसरे द्रव्यरूप नहीं परिणमना । जीव शक्तियों के अनुरूप ही प्रवृत्ति होती है। कभी पुद्गलरूप नहीं होता और पुद्गल कभी जीवरूप समयसार के आत्मख्यातिकार लिखते हैं - नहीं होता। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यंताभाव स्व-पर समाना, समान समाना, समान त्रिविधभाव रहता है। अत्यंताभाव का अर्थ है जो त्रिकाल में भी धारणात्मिका, साधारणासाधारण साधारणासाधारण उसरूप न हो सके। धर्मस्वशक्ति अर्थात् स्व-पर के समान, असमान और ६. छटवाँ प्रदेशत्व गुण का अर्थ प्रदेशों से समानासमान ये तीन भेदरूप भावों को धारणा स्वरूप सहित होना। जीव, धर्म और अधर्म ये तीनों द्रव्य साधारण, असाधारण और साधारणासाधारण धर्मत्व असंख्यात प्रदेशी हैं, काल द्रव्य एक प्रदेशी है, शक्ति है। आकाश द्रव्य अनंत प्रदेशी है और पुद्गल संख्यात, इसके विपरीत स्वरूप समझने पर क्या होता है असंख्यात तथा अनंतप्रदेशी है। पुद्गल का परमाणु इस बात को श्लोकवार्तिकाकार ने बताया है - एक प्रदेशी ही है परन्तु स्कन्ध में संख्यात, असंख्यात सपक्षेविपक्षे च भवेत् साधारणस्तु सः। और अनंत प्रदेश होते हैं। इस प्रदेशत्व गुण के कारण प्रस्तूभयस्याद्वधावृत्तः स त्व सा साधारणोमतः अर्थात् द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य होता है। व्यभिचारी हेत्वाभास तीन प्रकार का है – साधारण, आकार के बिना वस्तु खरविषाणवत् होती है अर्थात् असाधारण और अनुपसंहारी। उसमें जो हेतु सपक्ष व अस्तित्व से रहित होती है। विपक्ष दोनों में रह जाता है वह साधारण है और जो इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, पदार्थ के यथार्थ स्वरूप हेतु सपक्ष और विपक्ष दोनों में नहीं ठहरता वह को जानकर उसकी दृढ़ प्रतीति करता है। सम्यग्दृष्टि असाधारण है। जीव मोक्षमार्गी कहलाता है। उसकी परिणति ही बदल . महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy