SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारण है। राग की प्रशस्तता उसमें द्वष के पर विचार करते समय कर्ता प्राशय को भुलाया तत्व की कमी के आधार पर निर्भर होती है। नहीं जा सकता है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं तथापि सामाजिक जीवन में प्राचरण के शुभत्व का जिम राग के साथ ष की मात्रा जितनी अल्प प्राधार- यद्यपि यह सत्य है कि कर्म के शुभत्व और कम तीव्र होगी वह राग उतना प्रशस्त होगा और जिस राग के साथ दुष की मात्रा और तीव्रता का निर्णय अन्य प्राणियों या समाज के प्रति किए जितनी अधिक होगी वह उतना ही अप्रशस्त गए व्यवहार अथवा दृष्टिकोण के सन्दर्भ में होता है। लेकिन अन्य प्राणियों के प्रति हमारा कौनसा होगा। व्यवहार या दृष्टिकोण शुभ होगा और कौनसा द्वष विहीन विशुद्ध राग या प्रशस्त राग ही व्यवहार या दृष्टिकोण अशुभ होगा इसका निर्णय प्रेम कहा जाता है । उस प्रेम से परार्थ या परोपकार किस आधार पर किया जाए ? भारतीय चिन्तन वृत्ति का उदय होता है, जो शुभ का सृजन करती ने इस सन्दर्भ में जो कसौटी प्रदान की है, वह यह है उसी से लोक मंगलकारी प्रवृत्तियों के रूप में है कि जिस प्रकार के व्यवहार को हम अपने लिए पुण्य कर्म निसृत होते हैं जबकि द्वेष युक्त अप्रशस्त प्रतिकूल समझते हैं. वैसा प्राचरण दूसरे के प्रति राग ही घृणा को जन्म देकर स्वार्थ वृत्ति का नहीं करना और जैसा व्यवहार हमें अनुकूल है, विकास करता है, उससे अशुभ, अमंगलकारी पाप वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना; यही शुभाचरण कर्म निसृत होते है संक्षेप में जिस कर्म के पीछे है। इसके विपरीत जो व्यवहार हमें प्रतिकूल है, प्रेम और परार्थ होते हैं वह पुण्य कर्म और जिस वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना और जैसा कर्म के पौछे घृणा और स्वार्थ होते हैं वह पाप । व्यवहार हमें अनुकूल है वैसा व्यवहार दूसरों के कर्म । प्रति नहीं करना, अशुभाचरण है । भारतीय ऋषियों मात्र का यही सन्देश है कि 'पात्मनः प्रति जैन प्राचार दर्शन पुण्य कर्मों के वर्गीकरण में कूलानि परेषां मा समाचरेत्' अर्थात् जिस पाचरण जिन तथ्यों पर अधिक बल देता है, वे सभी समाज को तुम अपने लिए प्रतिकूल समझते हो वैसा सापेक्ष हैं। वस्तुतः शुभ अशुभ वर्गीकरण में आचरण दूसरों के प्रति मत करो। संक्षेप में सभी सामाजिक दृष्टि ही प्रधान है। भारतीय चिन्तकों प्राणियों के प्रति प्रात्मवत् दृष्टि ही व्यवहार के की दृष्टि में पुण्य और पाप की समग्र चिन्तना का शुभत्व का प्रमाण है। सार निम्न कथन में समाया हुआ है कि परोपकार पुण्य है और पर-पीडन षाप है'। जैन विचारकों जैन दृष्टिकोण - जैन दर्शन के अनुसार जिसकी ने पुण्य बन्ध के दान सेवा प्रादि जिन कारणों का संसार के सभी प्राणियों के प्रति प्रात्मवत् दृष्टि है उल्लेख किया है उनका प्रमुख सम्बन्ध सामाजिक वही नैतिक कर्मों का स्रष्टा है । दशवकालिक कल्याण या लोक मंगल से है। इसी प्रकार पाप सूत्र में कहा गया है समस्त प्राणियों को जो अपने के रूप में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है वे समान समझता है और जिसका सभी के प्रति सभी लोक अमंगलकारी तत्व हैं । इस प्रकार हम समभाव है वह पाप कर्म का बन्ध नहीं करता कह सकते हैं जहां तक शुभ-अशुभ या पुण्य-पाप के है । सूत्रकृतांग में धर्माधर्म (शुभाशुभत्व) के वर्गीकरण का प्रश्न है हमें सामाजिक सन्दर्भ में ही निर्णय में अपने समान दूसरे को समझना, यही उसे देखना होगा । यद्यपि बन्धन की दृष्टि से उस दृष्टिकोग्ग स्वीकार किया गया है। सभी को जीवित महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy