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________________ निश्चय करती है, उसमें द्रव्य (बाह्य) और भाव परमार्थिक मत्य । नैतिकता व्यवहार से परमार्थ (प्रांतरिक) दोनों का मूल्य है। उसमें योग (बाह्य की ओर प्रयारण है अतः उसमें दोनों का ही मूल्य क्रिया) और भाव (मनोवृत्ति) दोनों ही बन्धन के है। कर्म के शुभाशुभत्व के निर्णय की दृष्टि से कारण माने गये हैं, यद्यपि उसमें मनोवृत्ति ही कर्म के हेतु और परिणाम दोनों का ही मूल्यांकन प्रबल कारण है । वह वृत्ति और क्रिया में विभेद ग्रावश्यक है। नहीं मानती है। उसकी समन्वयवादी दृष्टि में मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, यह सम्भव चाहे हम कर्ता के अभिप्राय को शुभाशुभता के नहीं है। मन में शुभ भाव होते हुए पापाचरण निर्णय का अाधार माने, या कर्म के समाज पर सम्भव नहीं है। वह एक समालोचक दृष्टि से होने वाले परिणाम को। दोनों ही स्थितियों में कहती है-मन में सत्य को समझते हुए भी बाहर से किस प्रकार का कर्म पुण्य कर्म या उचित कर्म कहा दूसरी बातें (अणुभाचरग) करना क्या संयमी जावेगा और किस प्रकार का कम पाप कर्म या पुरुषों का लक्षण है ? उसकी दृष्टि में सिद्धान्त अनुचित कर्म कहा जावेगा यह विचार यावश्यक और व्यवहार में अन्तर अात्म प्रवंचना और लोक प्रतीत होता है। सामान्यतया भारतीय चिन्तन में छलना है । मानसिक हेतु पर ही जोर देने वाली पुण्य पाप की विचारणा के सन्दर्भ में सामाजिक धारणा का निरसन करते हुए सूत्रकृतांग में कहा दृष्टि ही प्रमुत्र है । जहां कर्म अकर्म का विचार गया है-कर्म बन्धन का सत्य ज्ञान नहीं बताने व्यक्ति मापेक्ष है, वहां पुण्य पाप का विचार समाज वाले इस वाद को मानने वाले कितने ही लोग संसार सापेक्ष है । जब हम कर्म अकर्म या कर्म के बन्धनत्व में फंसते रहते हैं कि पाप लगने के तीन स्थान हैं का विचार करत हैं तो वैयक्तिक कर्म प्रेरक या स्वयं करने से, दूसरों से एक कराने से, दूसरों के वैयक्तिक चेतना की विशुद्धता (वीतरागता) ही कार्य का अनुमोदन करने से । परन्तु यदि हृदय । हमारे निर्णय का आधार बनती है लेकिन जब हम पाप मुक्त हो तो इन तीनों के करने पर भी पुण्य पाप का विचार करते हैं तो समाज कल्याण निर्वाण अवश्य मिले । यह वाद अज्ञान है, मन से ___ या लोकहित ही हमारे निर्णय का अाधार होता पाप को पाप समझते हुए, जो दोष करता है, उसे है । वस्तुतः भारतीय चिन्तन में जीवनादर्श तो निर्दोष नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह संयम शुभाशुभत्व की सीमा से ऊपर उठना है, उस (वासना निग्रह) में शिथिल है। परन्त भोगासक्त सन्दर्भ में वीतराग या अनासक्त जीवन दष्टि का लोग उक्त बात मानकर पाप में पड़े रहते हैं20 । निर्माण ही व्यक्ति का परम साध्य माना गया है और वही कर्म के बन्धकत्व या प्रबन्धकत्व का पाश्चात्य प्राचार दर्शन में भी सुग्ववादी प्रमापक है । लेकिन जहां तक शुभ-अशुभ का सम्बन्ध विचारक कर्म की फल निष्पत्ति के आधार पर है उसमें "राग' या ग्रासक्ति का तत्य तो रहा उनकी शुभाशुभता का निश्चय करते हैं, जबकि हना है शुभ और अशुभ दोनों में ही राग या माटिन्यू कर्म प्रेरक पर उनकी शुभाशुभता का प्रासक्ति तो होती ही है अन्यथा राग के अभाव में निश्चय करता है । जैन विचारणा के अनुसार इन कर्म शुभाशुभ से ऊपर उठकर अतिनैतिक होगा। दोनों पाश्चात्य विचारणामों में अपूर्ण सत्य रहा यहां प्रमुखता राग की उपस्थिति या अनुपस्थिति हा है, एक का प्राधार लोकदृष्टि या समाज की नहीं वरन् उसकी प्रशस्तता की है। प्रशस्त दष्टि है और दूसरी का आधार परमार्थ दृष्टि या राग शुभ या पुण्य बन्ध का कारण माना गया है शुद्ध दृष्टि है । एक व्यावहारिक सत्य है और दूसरा और अपशस्त राग अशुभ या पाप बन्ध का 1-30 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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