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________________ रहने की इच्छा है, कोई भी मरना नहीं चाहता, लगता है वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति किया सभी को प्राण प्रिय हैं, सुख शान्तिप्रद है और दुख जाए; हे युधिष्ठर ! धर्म और अधर्म की पहिचान प्रतिकूल है । इसलिए वही आचरण श्रेष्ठ है जिसके का यही लक्षण है। द्वारा किसी भी प्राण का हनन नहीं हो 124 पाश्चात्य दृष्टिकोण-पाश्चात्य दर्शन में भी बौद्ध धर्म का दृष्टिकोण-बौद्ध विचारणा में भी सर्वत्र आत्मवत् दृष्टि को ही कर्म के शुभत्व सामाजिक जीवन में दूसरों के प्रति व्यवहार करने का यही दृष्टिकोण स्वीकृत है कि जैसा व्यवहार का आधार माना गया है । सुत्तनिपात में बुद्ध कहते तुम अपने लिए चाहते हो वैसा ही दूसरे के लिए हैं-जैसा मैं हूं वैसे ही ये दूसरे प्राणी भी हैं और जैसे करो । कान्ट ने भी कहा है कि केवल उसी नियम ये दूसरे प्राणी हैं वैसा ही मैं हं इस प्रकार सभी को के अनुसार काम करो जिसे तुम एक सार्वभौम अपने समान समझकर, किसी की हिंसा या घात नहीं नियम बन जाने की इच्छा कर सकते हो । मानवता करना चाहिए25 । धम्मपद में भी बुद्ध ने यही कहा चाहे वह तुम्हारे अन्दर हो या किसी अन्य के वह है कि सभी प्राणी दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से सभी सदैव से साध्य बनी रहे, साधन कभी न हो । भय खाते हैं, सबको जीवन प्रिय है, अतः सबको कान्ट के इस कथन का आशय भी यही निकलता अपने समान समझकर न मारे और न मारने की है कि नैतिक जीवन के संदर्भ में सभी को समान प्रेरणा करे । जो सुख चाहने वाले प्राणियों को, __ मानकर व्यवहार करना चाहिए । अपने सुख की चाह से दुःख प्रदान करता है वह मरकर भी सुख नहीं पाता। लेकिन जो सुख शुभ और अशुभ से शुद्ध को पोर---जैन चाहने वाले प्राणियों को, अपने सुख की चाह से विचारणा में शुभ एवं अशुभ अथवा मंगल अमंगल दुःख नहीं देता, वह मर कर भी सुख को प्राप्त की वास्तविकता स्वीकार की गई है । उत्तराध्ययन होता है। सूत्र में नव तत्व माने गये हैं जिसमें पुण्य और - गीता एवं महाभारत का दृष्टिकोण-मनुस्मृति, पाप को स्वतंत्र तत्व के रूप में गिना गया है34 ) महाभारत और गीता में भी हमें इसी दृष्टिकोण जबकि तत्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने जीव, अजीव, का समर्थन मिलता है। गीता में कहा गया है कि पाश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सातों जो सुख और दुःख सभी में दूसरे प्राणियों के प्रति को ही तत्व कहा है वहां पर पुण्य और पाप का प्रात्मवत् दृष्टि रखकर ब्यवहार करता है, वही स्वतंत्र तत्व के रूप में स्थान नहीं है । लेकिन यह परमयोगी है28 | महाभारत में अनेक स्थानों पर विवाद अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता क्योंकि इसी दष्टिकोण का समर्थन हमें मिलता है। उसमें जो परम्परा उन्हें स्वतन्त्र तत्व महीं मानती है वह कहा गया है कि जैसा कि अपने लिए चाहता है भी उनको आश्रय एवं बंघ तत्व के अन्तर्गत तो वैसा ही व्यवहार दूसरे के प्रति भी करे । त्याग- मान लेती है । यद्यपि पुण्य और पाप मात्र प्राश्रव दान, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय सभी में दूसरे को अपनी नहीं है वरन् उनका बंध भी होता है और विपाक प्रात्मा के समान मान कर व्यवहार करना भी होता है । अतः पाश्रव के दो विभाग शुभाश्रव चाहिए30 । जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों के प्रति अपने और अशुभाश्रव करने से काम पूर्ण पूरा नहीं होता समान व्यवहार करता है वही स्वर्ग के सुखों को वरन् बंध और विपाक में भी दो दो भेद करने प्राप्त करता है31 । जो व्यवहार स्वयं को प्रिय होंगे । इस वर्गीकरण की कठिनाई से बचने के लिए 1-32 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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