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________________ से व्यक्तित्व केवल बाहरी ग्रावरण मात्र ठहरता है । व्यक्तित्व की यह परिभाषा सुस्पष्टतया अपूर्ण है । कारण, व्यक्तित्व का सम्बन्ध बाहर-भीतर दोनों ओर से है । नाटक में पात्र के लिये वेशभूषा के साथ अभिनेयता भी प्रपेक्षित है । दुहरा व्यक्तित्व तो क्या ? एक भी पूर्ण व्यक्तित्व इस परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आता है वैसे अपूर्णतया दोनों ही परस्पर सम्बद्ध हैं । हां तो भगवान महावीर परसोना से परे परम दिगम्बर थे । वे एक ऐसे क्रान्तिकारी राजकुमार थे जो जीवन पर्यन्त राजा नहीं बने पर फिर भी राजाओं के राजा बन सके। उन्होंने कलिंग देश के राजा जितशत्रु की कन्या यशोदा से तो विवाह नहीं किया पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पूर्व निधियां लिये उस मुक्ति श्री का वरण अवश्य किया कि जिसके बाद उन्हें कुछ भी पाना शेष नहीं रहा और जिसकी प्राप्ति में सर्वस्व की प्राप्ति जैसी जीवन-साधना भी नितान्त निरुद्देश्य थी । वे शरीर से आत्मा और शिव की दिशा में बढ़ने लगे तो उन्होंने समग्र राजसी देवी परसोना को भार समझ कर त्याग दिया और अधिक क्या कहें ? सिर पर केश तक नहीं रखे । परसोना से परे, बाह्य और श्राभ्यन्तर के परिग्रह से रहित भगवान महावीर परम दिगम्बर हुए और लज्जा स्त्री जैसे वाईस परीषहों को जीतने में समर्थ हुये । उनका परसोना दिगम्बरत्व था । आत्मविद सामाजिक संस्कारी दार्शनिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व की व्याख्या करें तो व्यक्तित्व श्रात्मज्ञान का ही दूसरा नाम है । यह पूर्णतया प्रतीक है । विचार के इस बिन्दु से महावीर आत्मविद थे । उन्होंने अदृश्य हुई अनन्त दर्शन, ज्ञान, बल और सुख मूलक शक्तियों की अपने मानवीय जीवन में उपलब्धि की थी । श्रात्म बोध की दिशा में अग्रसर होकर, साधना की सफलता का सूचक केवलज्ञान उन्होंने पाया । उसके महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International आधार पर ही उन्होंने एक दो नहीं बल्कि तीस बरसों तक ग्रात्मवत्सर्वभूतेषु और ग्रात्मा सो परमात्मा बनने का दिव्य सन्देश सारे संसार को दिया । समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए कहा जा सकेगा कि व्यक्तित्वउन सब तत्वों का संगठन है, जिनके द्वारा व्यक्ति को समाज में कोई स्थान प्राप्त होता है । इसलिए हम व्यक्तित्व को सामाजिक प्रवाह कह सकते हैं । विचार के इस बिन्दु से महावीर पूर्णतया सामाजिक हैं। जब वे संसार में कुण्डग्राम के सुसज्जित राजभवन में थे तब वे राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला की प्राँखों के तारे थे। वे प्रजा के लिये वर्धमान अनेकानेक राजा, अपनी पुत्री का पाणिग्रहण थे । उनके नाना चेटक थे तो मौसा श्रेणिक थे । संस्कार उनके साथ कर कृतकृत्य हो जाना चाहते थे; और जब राजमहल छोड़कर परम ज्योति बने, वन में उच्चकोटि के योगीश्वर बने । बारह वर्षीय विकट साधना के पश्चात् — उन्होंने समवशशरण या धर्म सभा में जो दिव्य देशना दी, उसमें जियो और जीने दो की भावना मुखरित हुई । उनका समग्र सन्देश सांसारिक भले कम हो पर सामाजिक तो है ही, इसमें अणुमात्र को भी सन्देह की गुंजायश नहीं है । महावीर द्वारा संकलित विराट संघ में - जो मुनि प्रार्थिका श्रावक-श्राविका का समुदाय था, उसकी सामाजिक चेतना परम्परा की सीढ़ियों को पार करती हुई प्रतीत से प्राज तक बढ़ रही है । बाहर-भीतर से मुखरित मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व में वंशानुक्रम और वातावरण दोनों का समान महत्व है । राजकुमार मार्टन की दृष्टि से व्यक्तित्व व्यक्ति के जन्म जात तथा अर्जित स्वभाव, मूलप्रवृत्तियों, भावनाओं तथा इच्छाओं आदि का समुदाय है । विचार के इन बिन्दुओं को दृष्टि में रखते हुए 1-11 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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