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________________ महावीर का निर्वाण दिवस प्रधान रूप से प्रात्म- स्रोत अविरल फूटता रहे । आज व्यक्ति यांत्रिक बन जागरण की ओर उन्मुख करते हैं। पर महावीर गया है। उसमें हार्दिकता का अंश कम होता जा जयन्ती, आत्म जागृति से प्राप्त शक्ति और प्रकाश रहा है । वह अपनो के वीच रह कर भी पराया का जन जागृति में उपयोग करने का अवसर प्रदान बन गया है, उसकी दिशाएं और रिश्ते खो गये हैं। करती है। ऐसी स्थिति में महावीर का अहिंसा प्रत और मैत्री भाव राग से परे, सबको अनुराग में बांधता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि जैन धर्म मूलतः जनक्रान्ति और प्रात्मक्रान्ति का धर्म रहा आज के अर्थ प्रधान युग में अहिंसा की सम्यक है। जब ये दोनों क्रान्तियां समानान्तर चलती हैं परिपालना अपरिग्रह की भावना को आत्मसात तब आत्म धर्म और समाज धर्म में सन्तुलन बना किये बिना नहीं हो सकती। यदि कोई व्यक्ति रहता है पर जब यह सन्तुलन बिगड़ता है तब परिग्रह की मर्यादा न करे और अहिंसा की साधना स्थिति के अनुसार आत्म धर्म अथवा समाज धर्म में करने का व्रत ले तो वह कभी पूर्ण नहीं हो सकता। से किसी एक को प्रधानता देनी पड़ती है। मेरी भगवान महावीर ने आज से अढाई हजार वर्ष पूर्व दृष्टि से पर्युषण पर्व की साधना और महावीर जब आर्थिक समस्या इतनी जटिल नहीं थी. के निर्वाण दिवस की पाराधना, उपासना में हमारा अपरिग्रह के महत्व को हृदयंगम कर लिया था । बल आत्ममिता को जागृत करने पर विशेष रहता अहिंसा महाव्रत की निर्बाध साधना के लिये ही है। यदि हम महावीर जयन्ती को मनाते समय उन्होंने वैभव सम्पन्न, ऐश्वर्यपूर्रा सम्पूर्ण राजपाट समाजर्मिता पर विशेष बल देते हुए, जन जागृति को त्याग कर आकिंचन व्रत ग्रहण कर लिया था । का आह्वान कर सकें और उसके अनुरूप रचनात्मक आज के संदर्भ में महावीर द्वारा प्रतिपादित परिग्रह कार्यक्रम प्रस्तुत कर सकें तो हम महावीर की परिमाण व्रत की सर्वाधिक सार्थकता यही है कि विचारधारा को सही परिप्रेक्ष्य दे पायेंगे । व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह न करे, उसके पास आवश्यकता से अधिक जो सम्पत्ति हैं भगवान महावीर के सिद्धान्त जन जागृति में उसे वह अपने स्वामित्व की न समझे वरन् समाज अटूट प्रेरणा स्रोत बन सकते हैं। उनका अहिंसा की समझे और लोक कल्याण के लिये उसका का सिद्धान्त अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए निष्काम भाव से विसर्जन करदे । दूसरों के अस्तित्व की स्वीकृति पर बल देता है। जैसी आपकी आत्मा है वैसी दूसरे प्राणी की भी यह बड़ी विडम्वना है कि महावीर के तथाहै, जैसा संवेदन आपको प्रिय लगता है वैसा दूसरे कथित अनुयायी आज अत्यधिक परिग्रही हैं। उनमें को भी। अतः मन, वचन और कर्म से आप कोई से बहुत कम ऐसे हैं जिन्होंने अपने परिग्रह की ऐसा काम न करें जिससे दूसरे को कष्ट हो अथवा मर्यादा बांध रखी हो और आवश्यकता से अधिक उसकी स्वतंत्रता में बाधा पड़े । अहिंसा का यह सम्पत्ति का उपयोग वे जनकल्याण के लिये करते सिद्धान्त वैयक्तिक रूप से जीने की ऐसी पद्धति हों । आवश्यकता इस बात की है कि परिग्रह निर्धारित करता है कि जिसमें व्यक्ति किसी दुःख परिमाण व्रतधारी श्रावकों की संख्या अधिकाधिक का कारण न बन पाये और अपने जीवन व्यवहार बढ़े। को, शील-स्वभाव के इस प्रकार गठित करें कि भगवान् महावीर ने परिग्रह को केवल चलउसके रोम-रोम से प्रेम, करुणा और मैत्री का अचल सम्पत्ति तक ही सीमित नहीं रखा । उन्होंने महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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