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________________ मत, सम्प्रदाय, हठवादिता आदि को भी परिग्रह चारित्र के पूर्व “सम्यक्" विशेषण की इस दृष्टि से माना। विचारों की एकांगिता और संकीर्णता के गहरी अर्थवत्ता है । आज ज्ञान का, दर्शन का और दायरे से व्यक्ति मुक्त हो, यह उसकी मूल्यवान् चारित्र का क्षेत्र बड़ा व्यापक वना है, पर उसमें से स्वतन्त्रता है। इस स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिये 'सम्यवत्व' गायब हो जाने से वह सर्वकल्याणकारी उन्होंने अनेकांत दर्शन की प्रतिष्ठा की। अनेकान्त नहीं बन पा रहा है। दर्शन का मूलहार्द है-जो कुछ तुम सोचते हो या देखते हो वही सच नहीं है, दूसरे जो सोचते हैं महावीर जन्मजात क्रान्ति पुरुष थे। उन्होंने और देखते हैं वह भी सच हो सकता है, ऐसा समझ विचार और प्राचार दोनों धरातलों पर प्रात्मक्रांति कर किसी एक ही बात पर अड़े न रहो। अपनी के साथ-साथ जनक्रान्ति की। उनकी क्रान्ति के बात पर दूसरों की दष्टि से भी चिन्तन करो। साथ अहिंसा और अभय का अद्भुत मेल था, वस्तु अनन्त धर्मात्मक है अतः किसी एक धर्म को स्वतंत्रता और समानता की अनूठी संधि थी। देख कर या समभकर उसके समस्त धर्मों को देखने महावीर की वह क्रान्ति जनक्रान्ति वन कर जनया समझने की भूल मत करो । जब कभी सत्य का जीवन में फूटे, प्राज इसकी अपेक्षा है। इसके लिये प्रखण्ड रूप में दर्शन करना हो तब अपने को प्रावश्यक है कि हम धामिकों के जीवन में ही विरोध की स्थिति में रखकर सत्य को परखो। क्रान्ति न लावें वरन् धर्म को भी क्रान्ति के वाहक तब सत्य का जो रूप निखरेगा वह अखण्ड के रूप में प्रतिपादित और मूल्यांकित करें। महावीर और पूर्ण होगा। भगवान महावीर ने इस जयन्ती मनाने की सार्थकता इसी बात पर स्थिति को "सम्यक" कहा है। ज्ञान, दर्शन और निर्भर है। महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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