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________________ का अमृत वितरित करता है । ग्रहिंसा में पूर्ण विश्वास ही आत्म-विश्वास का चरम बिन्दु है । हिंसक प्रभैय होता है, उससे श्रात्म-विश्वास होता है और वह मानसिक रूप से सुखी होता है । (2) अरिग्रह - अपरिग्रह की परिभाषा यदि ध्यान, मनन व चितन के द्वारा सोचें तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते है कि माननीय दैनिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त जो भी धन शेष बचता है उसे जन कल्याण के लिये खर्च करना ही अपरिग्रह कहलाता है, अपरिग्रह की पृष्ठभूमि यही है । मानव मन में धन संचय के भाव भी उत्पन्न न होने चाहिये । व्यक्ति धन संचय को सुख की दिशा से लेता है लेकिन सुख व दुःख तो मन के प्रांतरिक अनुभव के विषय हैं यदि धन ही सब कुछ होता और इसी से सुख मिलता तो आज विश्व में अनेक धन्ना सेठ दुःखी न होते व अनेक गरीब सुखीं न होते । उदाहरणतया तीन व्यक्ति 'प्र, 'ब' एवं 'स' समान उम्र के हैं इनमें से प्र-ग्राफिसर, बक्लर्क एवं स - चपरासी (नौकर ) है । जब 'ब' (क्लर्क) 'अ' (ग्राफिसर ) को देखता है तो अपने को दुःखी अनुभव करता है परन्तु (चपरासी) को देखता है तो सुखी अनुभव करता है । जब 'स' इस प्रकार धन का सुख व दुख से कोई सम्बन्ध नहीं है है । यह जरूर है कि धन से कुछ समय के लिए बाह्य भोतिक सुख मिल सकते हैं । (3) अनेकान्त - प्रत्येक वस्तु में अलग- 2 तरह के गुण होते हैं उन गुणों को अलग - 2 दृष्टी से देखकर उसके गुणों को अध्ययन ही अनेकांन्त महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International कहलाता है । अनेकान्त शब्द बाहुब्रीही समास का है जिसका अर्थ अनेक अनेकान्त किसी वस्तु के बारे में एक संकुचित दायरे से निकल कर एक अनेक विचारों के दृष्टिकोण में परिवर्तित करता है एवं वस्तु स्थितिमूलक के मतों का समन्वय करता है । (4) स्याद्ववाद ---में दुसरो के विचारों को सुनकर अपने विचार से उसके समन्वय करने की क्षमता स्याद्ववाद कहलाती हैं । अर्थात जो मैं कह रहा हूं सही नहीं है पितु जो दूसरा कह रहा है वह भी सही हो सकता है । यह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है । एक वैज्ञानिक के लिये आवश्यक है कि वह सभी के विचार सुन अपनी परिकल्पना बनाये । (5) तत्व - ज्ञान - महावीर भगवान ने प्राज से 2500 वर्ष पूर्व ही बता दिया था कि ना तो किसी तत्व की उत्पत्ति की जा सकती है ना ही किसी तत्व को नष्ट किया जा सकता यद्यपि वह तत्व भिन्न - 2 रूपों में रह सकता है । यह सिद्धान्त विज्ञान की कसौटी से सही उतरता हैं । उन्होंने इसे 2000 वर्ष पूर्व ही बता दिया था जब कि विज्ञान के समुचित साधनों द्वारा भी इसको 100 वर्ष पूर्व ही ज्ञात कर सके इसी प्रकार जल छान कर पीना चाहिये क्योंकि उसमें सुक्ष्म - 2 जीवाणु होते हैं । इसी प्रकार पेड़ पौधों को नहीं सताना चाहिये उन्हें काटना नहीं चाहिए । यह उन्होंने 2500 पूर्व बता दी थी जबकि विज्ञान उसे अभी खोज कर पाया । महावीर स्वामी के सिद्धान्त वैज्ञानिक कसौटी पर पूर्ण रुपेण सही उतरते हैं । ( 6 ) कर्म सिद्धान्त - भगवान महावीर ने बताया कि व्यक्ति अच्छे व बुरे कार्यों के प्रति स्वयं जिम्मेदार होता हैं । कर्मों का निर्माण करने वाली कोई अन्य प्रलोकिक शक्ति नहीं होती For Private & Personal Use Only 1-12 www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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