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________________ भगवान महावीर को देन आज विश्व में चारों ओर प्रशति संघर्ष, वैमनस्य का वातावरण है । ऐसे में यह प्रश्न विचारणीय है कि किस प्रकार विश्व में शाति स्थापित की जाये । इस सन्दर्भ में जब हम भगवान महावीर के सिद्धान्तों की ओर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि यदि इन सिद्धान्तों को श्राज भी मनुष्य द्वारा अपनाया जाये तो उसके जीवन में शांति श्रा सकती है तथा वह विश्व में शांति स्थापित करने की ओर अग्रसर हो सकता है । भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन कुण्डग्राम में हुआ था । इनके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था । महावीर बचपन से ही चिन्तन शील थे । वे सन्यास ग्रहण करना चाहते थे । किन्तु वे माता-पिता की मृत्यु के पहले सन्यास लेकर उनको नाराज नहीं करना चाहते थे । इसलिये 30 वर्ष की उम्र में माता-पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने ग्रहस्थ जीवन छोड़ दिया तथा सन्यास ग्रहण कर लिया । उन्होंने 12 वर्ष तक कठोर तपस्या की । 42 वर्ष की उम्र में उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया । इसके बाद उन्होंने 30 वर्ष तक लोगों की सेवा की क्योंकि अब उनको पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया था । महावीर के सिद्धान्त बहुत ही दिव्य उज्जवल तथा पुन्यीत हैं । वे किसी विशेष सम्प्रदाय के नही अपितु प्राणी मात्र के लिये हैं । ये सिन्द्धात महावीर जयन्ती स्मारिका 78 . Jain Education International श्री संजय जोरिया खंडेलवाल वैश्य केन्द्रीय उच्च माध्यमिक विद्याय जयपुर आज भी उतने हरीणा दायक हैं जितने की भूतकाल में थे और युगों युगों तक रहेंगे। भगवान महावीर ने अपने सिद्धान्तों में मनुष्य को सच्चाई ईमानदारी एवं अहिंसा से जीवन बिताने को कहा है । उनके सिद्धान्तों के सार निम्न हैं: 1. अपने मन, वचन एवं कार्य से किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुंचाओ । 2. अपनी आवश्यकता से ज्यादा संचय न करो । 3. अपने कुल एवं जाति पर अभिमान न करो । 4. सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखो । 5. त्याग पूर्वक परिमित वस्तुनों में जीवन व्यतीत करो | 6. अच्छा स्वास्थ्य एवं पवित्र मन रखो । 7. क्रोध, अभिमान माया व लोभ को काबू में रखो । 8. परिग्रह हानिकारक हैं। इससे मन, वचन तथा कर्म ख़राब हो जाता है । उपरोक्त सिद्धान्तों को अपनाकर मनुष्य जीवन में सुखी, शान्त तथा सच्चरित्र हो सकता है तथा साथ ही विश्वशांति की ओर भी अग्रसर हो सकता है। भगवान महावीर ने मनुष्य को जीवन में शारीरिक हिंसा को रोकने के उपाय, समानता के भाव, धार्मिक सहिष्णुता एवं सहअस्तित्व की भावना आदि बताये हैं । वैचारिक हिसा को रोकने के लिये उन्होंने अनेकांत का For Private & Personal Use Only 3-13 www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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