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________________ ये संरक्षक थे। वंश भास्कर के पृष्ठ 4260 पर नीचा कर लिया और कर देना स्वीकार किया।" लिखा है-“जहं हुकमचन्द भूताग्रजात । नृप सन् 1803 के सन्धि पत्र में कोई कर देना तय पिठ्ठि खवासी तिनि निभात ।" वे बड़े धर्मात्मा भी नहीं हुआ था। थे । जयपुर शहर के बाहर उत्तर पूर्व कोने में इनने एक नसियां बनाई थी जो संघी हुकमचन्द राजा जगतसिंह का निस्संतान सं. 1875 की नसियां के नाम से प्राज विख्यात है। इनके (21-12-1818) में स्वर्गवास हो गया। अतः पुत्र विरधीचन्द भी 1886-88 में दीवान रहे। राज्य में कई दावेदार बनने लगे। जगतसिंह जी की द्वितीय रानी भटियानी जी ने बताया कि वे इस वंश में वहुचवित व्यक्ति संघी भूताराम गर्भवती हैं । इसकी जांच हुई । दि. 25-4-1819 हुए हैं । वे विचक्षण व्यक्ति थे। इनका जन्म सं. को उनके पुत्र जन्मा जिनका नाम द्वि.जयसिंह रखा 1832 के आसपास माघ कृष्णा 14 को हुआ था गया । पटरागी राठोड़ जी के बजाय पुत्र जन्मइनका दीवान पद पर कार्यकाल सं. 1884 से दात्री भटियारणी रानी राजमाता हो गई। अतः 1891 माना जाता है। सं. 1877 से पहले भी दोनों रानियों में अनबन रहने लगी। नाबालगी के ये राज्य में उच्च पद पर थे। इनका सारा जीवन इस काल में रावल वैरीसाल मंत्री थे। 12 मई, संघर्षमय रहा है ये बड़े जीवट के व्यक्ति थे। 1819 को राज्य के ठाकुरों, मुत्सद्दियों और प्रमुख संघी भूताराम के सम्बन्ध में लिखने से पूर्व कार्यकर्ताओं की ओर से राजमाता को एक शपथपत्र कुछ तत्कालीन जयपुर की परिस्थितियों पर भी प्रस्तुत किया गया कि नाबालगी के समय हम पुरी एक दृष्टि डालना आवश्यक है। जयपुर के सतर्कता से कार्य करेंगे। इसमें कई जैन अधिकारी तत्कालीन राजा जगतसिंह (सं. 1860 से 1875) थे। राजमाता स्वाधीनता प्रमी थी, वह अंग्रेजों का समय जयपुर के इतिहास में एक अशान्ति का का दखल कतई नहीं चाहती थी। रावल वैरीसाल समय रहा है। जयपूर का युद्धरत रहना, राजा राज्य कार्य में राजमाता का दखल नहीं चाहते का ऐय्याशी जीवन, राजनैतिक उथल पुथल, थे। रावल को अग्रेजों का संरक्षण था। फलत: अंग्रेजों का रियासत में जमाव आदि ऐसी घटनाएं राजमाता और मंत्री में मतैक्य नहीं रहा । परस्पर हैं जिससे जयपुर जनजीवन एवं राज्य व्यवस्था अनबन रहती थी। राजमाता को संघी भूताराम अस्त व्यस्त रही। जयपुर राज्य के साथ अंग्रेजों का पूरा विश्वास था। क्योंकि संधी अग्रेजों के की संधि सन् 1803 में हुई पर वह स्थिर नहीं दखल के विरुद्ध था-स्वतन्त्रता प्रमी था। वह रही। सन् 18 13 में फिर प्रग्रेजों ने दखल चाहा सूझ बूझ वाला, दूरदर्शक, शासन पटु था। राजपर उन्हें सफलता नहीं मिली, सन् 1817 में भी माता ने प्राय के विभाग का मंत्री संघी को बनाया कामयाबी नहीं मिली। अन्त में रावल वैरीसाल के रावल को संघी का हस्तक्षेप पसन्द न पाया। मंत्रित्व काल में सन् 1818 में सन्धि हुई जिसमें राजमाता ने दोनों को मिलकर काम करने की चार लाख से आठ लाख तक सालाना कर अंग्रेजों सलाह दी। को देने का वायदा हुमा फलतः रावल वैरीसाल को अग्रेजों का संरक्षण मिला। बलदेव प्रसाद सन् 1821 में जयपुर में पोलिटिकल एजेन्सी मिश्र ने राजस्थान के इतिहास पृष्ठ 633-634 कायम हुई। एजेन्ट ने रावल को सारा काम में लिखा है कि 'इस संधि से जयपुर राज्य ने संभलवाने, राज कार्य में से राजमाता को हाथ चिरकाल के लिए अपने स्वाधीन ऊचे मस्तक को खेंचने और राज्य के अन्दरूनी हिसाब किताब के महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-121 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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