SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (3) ऊर्ध्वलोक प्रशमरतिप्रकरणकार ने ऊर्ध्वलोक को 15 प्रकार का कहा है। ये 15 भेद कौन से हैं, इनका विवरण नहीं है। देव चार प्रकार के हैं, इनमें भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क मध्यलोक में रहते हैं। वैमानिक ऊर्ध्वलोक में रहते हैं वे दो प्रकार के हैं कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्पोपपन्न 12 प्रकार के हैं । कल्पातीत में नौ ग्रैवेयक, (दिगम्बर परम्परानुसार नौ अनुदिश) तथा 5 अनुत्तर विमानवासी देव हैं। इनके अतिरिक्त सिद्धशिला भी ऊध्वलोक में है, जिसमें सिद्धों का निवास है। इस प्रकार 12 कल्पों के बारह, ग्रेवेयकों का एक, अनुत्तर विमानों का एक तथा ईषत्प्राग्भार या सिद्धशिला का एक भेद मिलाकर 15 भेद होते हैं । टीकाकार ने 12 कल्पों के 10 भेद किये हैं क्योंकि पानत--प्राणत तथा पारण-अच्युत इन युगलों का एक-एक इन्द्र होने से एक-एक भेद है। नौ ग्रेवेयकों के अधो, मध्य तथा उपरितन के भेदानुसार तीन भेद, पाँच महाविमानों का एक भेद तथा ईषत्प्राग्भार का एक भेद मिलाकर कुल 15 भेद होते हैं । इस प्रकार इन दोनों प्रकार की गणनाओं से ऊर्ध्व लोक 15 प्रकार का होता है । ___ तत्त्वार्थभाष्यकार तो ज्योतिष्क देवों के एक भेद प्रकीर्णक तारात्रों की स्थिति ऊर्ध्वलोक में मानते हैं। सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहा नक्षत्राणि च तिर्यग्लोके, शोषास्तूर्ध्वलोके ज्योतिष्का भवन्ति 139 इससे स्पष्ट है कि भाष्यकार उक्त 15 भेदों के अतिरिक्त ऊर्ध्वलोक का एक भेद और मान रहें हैं, जो कि प्रकीर्णकताराओं का है, जिसका समावेश उक्त 15 भेदों में सम्भव नहीं है । (4) संयम के भेदों में अन्तर-यद्यपि प्रशमरतिप्रकरण तथा तत्त्वार्थ भाष्य दोनों में संयम के 17 भेद प्रदर्शित किये गये हैं, संख्या में समानता होने पर नाम अलग-अलग हैं । प्रशमरतिप्रकरण में पाँच प्रास्रवद्वारों से विरति, पाँच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विजय तथा तीन दण्ड से उपरति 17 प्रकार का संयम माना गया है। पञ्चास्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहश्च कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥40 तत्त्वार्थभाष्य में ये भेद इस प्रकार हैं योगनिग्रहः संयमः । स सप्तदशविधः । तद्यथा पृथिवीकायिकसंयमः, अप्कायिकसंयमः, तेजस्कायिकसंयमः, वायुकायिकस यमः, वनस्पतिकायिकसंयमः, द्वीन्द्रियसंयमः, त्रीन्द्रियसंयमः, चतुरिन्द्रियसंयमः, पञ्चेन्द्रियसंयमः, प्रेक्ष्यसंयमः, उपेक्ष्यसंयमः अपहृत्यसंयमः, प्रमृज्यसंयमः, कायसंयमः, वाक् संयमः, मनः संयमः, उपकरणसंयमः, इति संयमो धर्मः 141 तत्त्वार्थसूत्र तथा भाष्य के साथ प्रशमरतिप्रकरण का उक्त साम्य-वैषम्य इस बात को स्पष्ट करता है कि तत्त्वार्थसूत्र तथा भाष्य के कर्ता व प्रशमरति के कर्त्ता एक नहीं हैं। 2-6 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy