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________________ पहले के अध्यायों में हो चुका । पाँचवे काल व्यतिरिक्त चार अजीव द्रव्यों का वर्णन कर चुकने के पश्चात् सूत्रकार द्रव्य का सामान्य लक्षण करते हैं । गुणपर्ययवद् द्रव्यम् । इसके उपरान्त वे कालद्रव्य का उल्लेख करते हैं ।27 यदि सूत्रकार काल को भी पृथक् द्रव्य मानते, तो अवश्य उसका उल्लेख भी अजीवद्रव्यों की गणना के साथ अर्थात् 'अजीवकाया धर्मा-धर्माकाशपुद्गलाः ।28 के तुरन्त बाद 'द्रव्याणि' सूत्र के पहले करते, अथवा जीवाश्च के साथ अर्थात् उसके तुरन्त बाद करते । इतना नहीं तो कम से कम द्रव्य का सामान्य लक्षण करने के पूर्व अवश्य करते । आ आकाशादेकद्रव्यारिण निष्क्रियाणि च । इन दो सूत्रों द्वारा धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों को एक-एक तथा निष्क्रिय कहा है । काल द्रव्य भी निष्क्रिय है, पर उसकी निष्क्रियता का सूत्रों में कहीं संकेत नहीं है । द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या 30 का विचार करते समय 'नाणोः'31 अणु को अप्रदेशी कहा है । काल भी अप्रदेशी है, परन्तु उसका उल्लेख नहीं है। कालद्रव्य की यह उपेक्षा सिद्ध करती है कि वे काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते। भाष्यकार ने तो सर्वत्र द्रव्य को पाँच प्रकार का ही कहा है-एते धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च पञ्च द्रव्याणि च भवन्तीति ।32 या आकाशाद् धर्मादीन्येक द्रव्याण्येव भवन्ति । पुद्गलजीवास्त्वनेकद्रब्याणि 133 धर्म से आकाश तक धर्म, अधर्म और प्राकाश एक द्रव्य हैं । पुद्गल और जीव अनेक द्रव्य है । यहाँ भी उन्होंने काल द्रव्य का उल्लेख नहीं किया है । एतानि द्रव्याणि नित्यानि भवन्ति ।............." न हि कदाचित् पञ्चत्वं भतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति । कालश्चेत्ये के का भाष्य है-एके त्वाचार्या व्याचक्षते कालोऽपि द्रव्यमिति ।35 प्रशमरतिकार को निर्विवाद रूप से षड्द्रव्य इष्ट है-- धर्मा-धर्माकाशानि पुद्गला: काल एव चाजीवाः । पुद्गलवर्जमरूपं तु रूपिणः पुद्गलाः प्रोक्ताः । जीवाजीवा द्रव्यमिति षड्विधं भवति लोकपुरुषोऽयम् । वैशाखस्थानस्थः पुरुष इव कटिस्थकरयुग्मः ॥ इस प्रकार द्रव्यों के विषय में सैद्धान्तिक मतभेद है। (2) जीव के भाव-- तत्त्वार्थसूत्र में जीव के पाँच भाव माने गये हैं । वही भाव भाष्यकार को अभीष्ट है । औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ।37 प्रशमरति-प्रकरण कार ने छह भाव माने हैं । सान्निपातिक भाव का भी परिग्रहण किया है। भावा भवन्ति जीवस्यौदयिक: पारिणामिकश्चैव । प्रौपशमिकः क्षयोत्थः क्षयोपशमजश्च पञ्चते ।। ते चैकविंशतित्रिद्विनवाष्टादशविधाश्च विज्ञेयाः । पष्ठश्च सान्निपतिक इत्यन्यः पञ्चदशभेदः ॥38 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 . 2-5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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