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________________ मागमः तदाधार संघश्च' अर्थात् जिनेन्द्र कथित होती है इससे उनको धर्म तीर्थकर कहते हैं । मूला आगम तथा प्रागम का प्राधार साधुवर्ग तीर्थ है। चार के एक अत्यन्त भाव पूर्ण स्तुति-पद्य में भगवान् तीर्थं शब्द का अर्थ घाट भी होता है । अतएव को धर्म तीर्थकर कहा है। "तीर्थं करोतीति तीर्थंकर" का भाव यह होगा, कि जिनकी वाणी के द्वारा संसार सिंधु से जीव तिर "लोगुज्जोयरा धम्मलित्थयरे जिणवरे य प्ररहते । जाते हैं वे तीर्थ के कर्ता तीर्थकर कहे जाते हैं। कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहि ममदिसंत ॥" सरोवर में घाट बने रहते हैं, उस घाट से मनुष्य (जगत् को सम्यक्ज्ञान रूप प्रकाश देने वाले सरोवर के बाहर सरलतापूर्वक आ जाता है । इसी धर्म तीर्थ के कर्ता, उत्तम, जिनेन्द्र अर्हन्त केवली प्रकार तीर्थकर भगवान के द्वारा प्रदर्शित पथ का मुझे विशुद्ध बोधि प्रदान करें अर्थात् उनके प्रसाद अवलम्बन लेने वाला जीव संसार-सिन्धु में न डूब से रत्न त्रय धर्म की प्राप्ति हो । कर चिन्तामुक्त हो जाता है। भगवान में कहा है तीर्थकर शब्द का प्रयोग मीर्मी कुर्वन्ति तीर्थानि । तीर्थकर शब्द का प्रयोग भगवान महावीर के जिनेन्द्र भगवान को भाव तीर्थ कहा है समय में अन्य सम्प्रदायों में भी होता था, यद्यपि दंसगा-गाणा चरित्ते रिणज्जुत्ता, प्रचार तथा रूढ़िवश तीर्थकर शब्द का प्रयोग श्रेयांस जिणवरा दु सव्वेपि । राजा के साथ करते हुए उनको दान तीर्थंकर कहा तिहि कारणेहिं जुप्ता, है । अतएव तीर्थंकर शब्द के पूर्व में धर्म शब्द को तम्हा ते भावदो तित्थं ॥ लगा कर धर्म तीर्थंकर रूप में जिनेन्द्र का स्मरण करने की प्रणाली प्राचीन है। सभी जिनेन्द्र भगवान् सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र संयुक्त हैं । इन तीन कारणों प्रकृति के बन्धक से युक्त हैं, इससे जिन भगवान् भाव तीर्थ हैं। जिनेन्द्र वाणी के द्वारा जीव अपनी प्रात्मा को सम्यक्त्व होने पर ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध परम उज्ज्वल बनाता है। ऐसी रत्न-त्रय भूषित होता है । इस प्रकृति का बन्ध क्रियान्वित गति को प्रात्मा को भाव तीर्थ कहा है। जिनेन्द्र रूप भाव छोड़कर तीन गतियों में होता है। किन्हीं प्राचार्यो तीर्थंकर बनता है। रत्न त्रय भूषित जिनेन्द्र रूप का कथन है कि नरक की प्रथम पृथ्वी में तीर्थंकर भाव तीर्थ के द्वारा अपवित्र आत्मा भी पवित्रता का बंध पर्याप्त तथा अपर्याप्त अवस्था में होता है। को प्राप्त कर जगत के सन्ताप को दूर करने में दूसरी तथा तीसरी पृथ्वी में पर्याप्त अवस्था में ही समर्थ होती है । इन जिनदेव रूप भाव तीर्थ के इसकाबन्ध होता है आगे के नरकों में इस प्रकृति का द्वारा प्रवर्धमान प्रात्मा तीर्थकर बनती है और बन्धनहीं होता। पश्चात् श्रुत रूप तीर्थ की रचना में निमित्त होती है। दर्शन विशुद्धि प्रादि तीर्थंकर नाम कर्म के कारण है । दर्शन विशुद्धि प्रादि भावनाए पृथक धर्म-तीर्थकर रूप में तथा समुदायरूप में तीर्थंकर पद प्राप्ति के जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति के कारण हैं । 1-56 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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