SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर धर्म जाता है तथा संक्लेश परिणामों के कारण पाप ___ सुख रूप फलों से युक्त होते हैं । दर्शन विशुद्धि का संग्रह कर नरक जाता है । पुण्य कर्म की उदयामें प्रागत दर्शन शब्द सम्यक् दर्शन का ही वाचक वलि द्वारा क्षय करने के लिए जैसे होनहार तीर्थहै । दर्शन के होने पर प्राप्त विशुद्धि रूप यह भावना कर स्वर्ग गमन करता है उसी प्रकार संचित गुण है । विशुद्धि का अर्थ है पुण्यप्रद उज्ज्वल भाव । राशि को उपभोग द्वारा क्षय करने के लिए नरक में जाता है मोक्ष प्राप्ति के लिए दोनों प्रावश्यक विश्व कल्याण की प्रबल भावना के द्वारा । हैं। सम्यकत्व की दृष्टि से स्वर्ग और नरक दोनों सम्यक्त्व प्राप्त जीव तीर्थंकर प्रवृति का बंध करता। ही अस्थाई है। प्राचार्य अमितगति के शब्दों में है। विनयशीलता अहन्त और प्राचार्य भक्ति प्रव - वह सोचता है, कि "मेरी मात्मा अधूरी है उसका चन पटुता आदि अनेक भावनामें सम्यक्त्व के होने विनाश नहीं मिलता। वह मलिनता रहित है। पर सहज ही इसके अंगरूप में प्राप्त होती हैं। ज्ञानस्वरूप है समस्त पदार्थ मेरी प्रात्मा से अलग सम्यक-दर्शन और दर्शन विशुद्धि हैं कर्मों के फलस्वरूप अवस्था में मेरी नहीं है।" इस दृष्टि से इसीलिए दुख और सुख दोनों अस्थाई सम्यक-दर्शन और दर्शन विशद्धि भावना में भेद हैं अतः तीर्थंकर चाहे नरक से अथवा स्वर्ग से है। सम्यक-दर्शन प्रात्मा में एक विशेष परिणाम प्राकर मनपर्यय, मानव देह धारणा करे उससे तीर्थहै। उसके सद्भाव में लोक-कल्याण की भावना करत्व को कोई क्षति नहीं पहुंचती। उत्पन्न होती है । उसे दर्शन विशुद्धि भावना कहते गुण अन्य विशेषता तीर्थंकर प्रकृति के सद्भाव का प्रभाव तीर्थकर की विशेषता उसके गुणों को दृष्टि में रखकर की जाती है। तीर्थकर भक्ति का अन्तिम तीर्थकर प्रकृति का उदय केवली प्रवस्या में चरण बड़ा प्रेरक है........ "मेरे दुखों का क्षय से होता है । यह नियम होते हुए भी तीर्थंकर के गर्भ, कर्मों का क्षय हो ।........रत्न त्रय का लाभ हो। जन्म, तथा तप कल्यागाक तीनों तीर्थंकर के प्रकृति सुगति में गमन हो समाधि पूर्वक मरण हो । जैनेन्द्र सद्भाव मात्र से होते हैं । पंचकल्याणक वाले तीर्थ- की सम्पत्ति प्राप्त हो।" संसार इन पांच प्रकार के कर मनुष्य पर्याय से परिणाम से नहीं पाते । वे कलेश भोर प्रकल्याणों का प्राश्रय माना गया है नरक या देवगति से प्राते हैं । भरत क्षेत्र सम्बन्धी उनको द्रव्य क्षेत्र काल भव तथा भावरूप पंच परावर्तमान तीर्थकर स्वर्ग सुख भोगकर भरत क्षेत्र में वर्तन कहते हैं। मोक्ष का स्वरूप चितवन करने उत्पन्न हुए थे। इनमें नरक से कोई नहीं पाए। वाले सत्पुरुष को उक्त पंच परावर्तन रूप संसार में नरक से निकलकर न पाने वाली प्रात्मा तत्वज्ञों परिभ्रमण का कष्ट नहीं उठाना पड़ता है। उनके को रुचिकर लगता है किन्तु भक्तों को इससे मनो- पुण्य जीवन के प्रसाद से पंच प्रकार के अकल्याण व्यथा होती है। इसका क्या समाधान है ? छूट जाते हैं तथा यह जीव मोक्षरूप पंचमगति को प्राप्त करता है । पंच अकल्याणों की प्रतिपक्ष रूप स्वर्ग या नरक का कारण तीर्थकर के जीवन की गर्भ जन्मादि पंच प्रवस्थानों की पंच कल्याण का पंचकल्याणक नाम से प्रसिद्ध जीव विशुद्ध भावों से पुण्य को संचय कर स्वर्ग है। महावीर जयन्ती स्मारक 77 1-57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy