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________________ तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध तो इस क्षेत्र में पूर्वजन्म में केवली याश्रित केवली के पादमूल में परोपकार की उत्कट भावना उत्पन्न होने पर दर्शन विशुद्धि प्रावि सोलह भावनाओं के भाने से होता है मगर उसका उदय केवलज्ञान होने पर ही होता है उससे पूर्व नहीं । तीर्थंकरों के पंचकल्याएक इस प्रकृति के सत्ता में होने से सातिशय पुण्योदय के काररण होते हैं । वैदिक सम्प्रदाय में मान्य अवतारवाद की तरह तीर्थंकरों का श्राविर्भाव इस धरा पर नहीं होता । तीर्थंकर कौन है ? धर्म-सूर्य सूर्योदय होते ही अन्धकार का क्षय होता है, उसी प्रकार तीर्थंकर रूपी धर्म-सूर्य के उदय होते ही जगत् में प्रवर्धमान मिथ्यात्व का अन्धकार भी अंत:करण से दूर होकर प्राणी में निजस्वरूप का श्रव बोध होने लगता है किन्हीं की मान्यता है कि धर्म की ग्लानि होने पर धर्म की प्रतिष्ठा स्थापन हेतु शुद्ध अवस्था प्राप्त परमात्मा मानवादि पर्यायों में अवतार धारण करता है । जिस प्रकार बौज के दग्ध होने पर वृक्ष उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार राग-द्वेष, मोह मादि विकारों के बीज श्रात्म-समाधि रूप अग्नि से नष्ट होने पर परम पद को प्राप्त आत्मा का राग द्वेष पूर्ण दुनियां में प्राकर विविध प्रकार की लीला दिखाना युक्ति, सद्विचार तथा गम्भीर चिंतन के विरुद्ध है । सर्वदोष मुक्त जीव द्वारा मोहमयी प्रदर्शन उचित नहीं कहा जायगा । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International प्र० सम्पादक * श्री व्योहार राजेन्द्रसिह, जबलपुर उदय काल इस स्थिति में प्राचार्य रविषेण एक मार्मिक तथा सुयुक्ति समर्थित बात कहते हैं कि जब जगत् में धर्म-ग्लानि बढ़ जाती है सत्पुरुषों को कष्ट उठाना पड़ता है तथा पाप-बुद्धि वालों के पास विभूति का उदय होता है, तब तीर्थंकर रूप महान् प्रात्मा उत्पन्न होकर सच्चे प्रात्म-धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ाकर जीवों को पाप से विमुख बनाते हैं। उसने पद्मपुराण में कहा है। श्राचारणां विघातेन कुदृष्टीनां च संपदा | धर्म ग्लानि परिप्राप्त मुच्छ्यन्ते जिनोत्तमाः ॥ ( जब उत्तम माचार का विघात होता है, मिथ्याधर्मियों के समीप श्री की वृद्धि होती है, सत्य धर्म के प्रति घृणा निरादर का भाव उत्पन्न होने लगता है, तब तीर्थकर उत्पन्न होते हैं और सत्य धर्म का उद्धार करते हैं ।) तीर्थ का स्वरूप इस तीर्थकर शब्द के स्वरूप पर विचार करना उचित है । प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने लिखा है, 'तीर्थ For Private & Personal Use Only 1-55 www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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