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________________ सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिव गुरणभूषा कन्यका संपुनीतान्जिन पति-पद-पद्म प्रक्षिणी दृष्टिलक्ष्मी । व्याख्या - "यह पद्य श्रन्त्य मंगल के रूप में है । इसमें ग्रन्थकार महोदय स्वामी समन्तभद्र ने जिस लक्ष्मी के लिये अपने को सुखी करने श्रादि की भावना की है वह कोई सांसारिक धन-दौलत नहीं है, बल्कि वह सद्दृष्टि है जो ग्रन्थ में वगित धर्म का मूल प्रारण तथा प्रात्मोत्थान की प्रनुपम जान है और जो सदा जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों का -- उनके प्रागमगत पद-वाक्यों की शोभा का निरीक्षण करते रहने से पनपती, प्रसन्नता धारण करती और विशुद्धि एवं वृद्धि को प्राप्त होती है । स्वयं शोमा सम्पन्न होने से उसे यहां लक्ष्मी की उपमा दी गयी है । उस दृष्टि लक्ष्मी के तीन रूप हैं-एक कामिनी का दूसरा जननी का और तीसरा कन्या का । ।। १५० ।। ये क्रमशः सुखभूमि, शुद्धशीला तथा गुणभूषा विशेषण से विशिष्ट हैं। कामिनी के रूप में स्वामी ने यहां अपनी उस दृष्टि सम्पत्ति का उल्लेख किया है जो उन्हें प्राप्त है, उनकी इच्छाओं की पूर्ति करती रहती है और उन्हें सुखी बनाये रखती है । उसका सम्पर्क बराबर बना रहे. यह उसकी पहली भावना है । जननी के रूप में उन्होंने अपनी इस मूल दृष्टि का उल्लेख किया है जिससे उनका रक्षण पालन शुरू से ही होता रहा है और उनकी शुद्धशीलता वृद्धि को प्राप्त हुई है। वह मूल दृष्टि श्रागे भी उनका रक्षण - पालन करती रहे. यह उनकी दूसरी भावना है । कन्या के रूप में स्वामीजी ने प्रपनी उस उत्तरवर्तिनी दृष्टि का उल्लेख किया है जो उनके विचारों से उत्पन्न हुई है, तत्त्वों का गहरा मन्थन करके जिसे उन्होंने निकाला है और इसीलिये जिसके वे स्वयं जनक हैं वह नि:शकितादि गुणों से विभूषित हुई दृष्टि उन्हें पवित्र 3-14 Jain Education International करे और उनके गुरुकुल को ऊंचा उठाकर उसकी प्रतिष्ठा को बढ़ाने में समर्थ होवे, यह उनकी तीसरी भावना है ।" इस प्रकार भगवान ने स्वयं को कामी श्रौर दृष्टि लक्ष्मी को कामिनी की उपमा दी है। यानी हमारे झगड़ने के लिये काफी मसाला इस पद्य में उन्होंने दे दिया है । पर नहीं, हमें यहां भी यह विवेक करना पड़ेगा कि शब्द, पद और वाक्य, दृष्टान्त के शरीर हैं । उसकी श्रात्मा तो उसका भावार्थ या श्रभिप्रत अर्थ मात्र है । केवल सन्दर्भहीन शब्दार्थ से लड़ पड़े, यह हमारी मूर्खता होगी । दूसरे उदाहरण के सम्बन्ध में विचार करते समय हमें दो बातों पर ध्यान देना पड़ेगा। पहला लेखक के काल की समान व्यवस्था और दूसरा उसके शब्दों का आधार । लेखक अपने आसपास समाज में, राज्य में, श्रोर देश में जो कुछ देखता है उसका प्रतिबिम्ब उसके लेखन पर अनिवार्यतः पड़ता है । इसीलिये साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है | छहढाला में सम्यकदृष्टि जीव के सांसारिक भोगों के सम्बन्ध के उदाहरण बड़े सटीक हैं। 'नगर नारि को प्यार' और कांधे में हेम' हमेशा समझ में श्राते रहे हैं । गरिणका का प्यार प्रदर्शन श्रर्थप्राप्ति की धुरी पर हो तो घूमता है । परन्तु बुधजनजी की छहढाला में एक उदाहरण माया है 'ज्यों सती नारि तन को सिगार ।' इस पंक्ति का भी यही अर्थ पढ़ा, सुना, समझा और माना कि सती स्त्री अपने तन का श्रृंगार केवल अपने पति को रिझाने के लिये करती है। उसकी सज्जा पर पुरुष के लिये लेशमात्र भी नहीं है । कुछ वर्षो पूर्व राजस्थान का इतिहास पढ़ते समय अठारहवीं शताब्दी में वहां प्रचलित सती प्रथा का रोमांचकारी वर्णन पढ़ने को मिला । बुधजन उस सतीप्रथा के प्रत्यक्ष साक्षी बनकर ही महावीर जयन्ती स्मारिका 77 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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