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________________ दृष्टान्त को लड़ाई; लड़ाई का दृष्टान्त * श्री नीरज जैन, एम० ए०, सतना, समाज में दो उदाहरणों या दृष्टान्तों को प्रर्थ और भावार्थ अत्यन्त स्पष्ट हैं। किसी भी लेकर प्रायः विवाद के बादल घुमड़ रहे हैं। कवि. प्रकार उसका यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि वर बनारसीदासकी- "सूकर के लेखें जस पुरीष 'पुण्य विष्ठा है।' यदि हम इस उदाहरण के पकवान है" यह पक्ति वर्षों से मालोच्य और समा- प्राधार पर पुण्य को विष्ठा कहना प्रारम्भ करें तो लोच्य बनी बिराज रही है । इधर कुछ समय से प. वह, कविवर के मतानुसार, शूकर की ही दृष्टि से दीपचन्दजी का एक गद्य उदाहरण चर्चा का विषय सम्भव है। विचार हमें करना पड़ेगा कि तत्त्वहै जिसका भावार्थ यह है कि- "जिस स्त्री का विश्लेषण करने वाले जिज्ञासु की दृष्टि से हमें बात पति बना हुआ है, वह यदि अन्य पुरुष से भी गर्भ को समझना है या मात्र अपने पूर्वाग्रह की पुष्टि के धारण करे तो उसे दोष न लगे।" लिये पुण्य को विष्ठा सिद्ध करते हुवे सुअर की दृष्टि से उसे देखना है। मैंने उक्त दोनों विद्वान लेखकों के उपरोक्त उदाहरण सप्रसंग पढ़े हैं। बात अत्यन्त सीधी है। बनारसीदासजी का इस तरह का उदाहरण लेखक जो विवेचन कर रहा था उस पर एकदेश रखना जैन साहित्य में कोई नई बात नहीं । बात ठीक बैठता हुआ भी उदाहरण जो जैसा सामने को समझने के लिये बड़े-बड़े प्राचार्यों ने इस तरह प्राया, उसने प्रस्तुत कर दिया । दृष्टान्त को एक- के उदाहरणों का सहारा लिया है । दो हजार वर्ष देश महीं मान कर उसका सर्वदेश प्रौचित्य सिद्ध पहले हमारे महान् प्राचार्य भगवन् समन्तभद्र ने करने का हठाग्रह यदि हम करेंगे तो निश्चित रत्नकरण्डश्रावकाचार के अन्तिम पद्य में यह ही विवाद जन्म लेंगे। मालिन्य बढ़ेगा । हम यही कामना की है कि सम्यक्त्व रूपी दृष्टि लक्ष्मी मुझे कर रहे हैं। इसी प्रकार सुखी करो जिस प्रकार कामिनी स्त्री - बनारसीदासजी उस मोही गृहस्थ की बात कामी पुरुष को सन्तुष्ट करती है। इतना ही नहीं, भगवान् ने इस एक ही छन्द में अपनी दृष्टि लक्ष्मी करना चाहते हैं जिसकी दृष्टि से मोक्ष के मूलभूत को कामिनी, जननी और कन्या के रूप में रखकर मभिप्राय स्खलित हो चुके हैं और पुण्य ही जिसे अपने लिये सुख, रक्षा और पवित्रता की कामना अपने पुरुषार्थ का परम श्रेष्ठ फल दिखाई देता है। उनका आरोप है कि जिस प्रकार शूकर-कूकर की है। यहां मैं श्री जुगलकिशोर मुख्तार की प्रादि को विष्ठा ही सबसे बड़ा पकवान प्रतीत व्याख्या सहित उस छन्द को प्रविकल उद्धृत कर रहा हूंहोता है उसी प्रकार मोही जीव को पुण्य ही सबसे बड़ा परमार्थ दिखाई देता है । उदाहरण का सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव महावीर जयन्ती स्मारिका 77 3-13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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