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________________ अपनी लेखनी चला रहे थे । वे देख रहे थे कि वरण समाज में नहीं था। इस परिप्रेक्ष्य में अपने चितारोहण करने के पहले नारी की देह सोल हों उदाहरण के द्वारा पंडितजी सिर्फ इतना कहना शृगार से संस्कारित की जा रही है। किन्तु उसका चाहते हैं कि भले ही कोई स्त्री अपने शील से डिगमन इस शृगार के प्रति एकदम उदासीन है। कर किसी अन्य पु ष द्वारा गर्भधारण करले परन्तु अपनी पारम्परिक प्रास्था के कारण उसकी अडिग जब तक उसका पति मौजूद है तब तक ऐसी स्त्री धारणा है कि वितारोहण करते ही उसके पति से के प्राचरण पर सन्देह प्रकट करना. दोष लगाना उसका चिर मिलन असंदिग्ध है। शरीर संस्कार या दण्डित करना समाज के लिये सम्भव नहीं है । उस चिरमिलन की प्रस्तावना के रूप में प्रव- स्त्री अपने पति का त्याग कर दे. पति स्वयं उसे श्यम्भावी एवं अनिबार्य है। ऐसा सोचकर वह नारी लांछित कर दे या, उससे जुदा रहने लगे तब तन के शृगार को अपने चिरमिलन में बाधक स्थिति बदल जायेगी । एक सहज बात को समझाने मानते हुए भी उसकी अनिवार्यता को स्वीकार के लिये पडितजी ने एक बहुत सहज उदाहरण करती है। किन्तु उसकी दृष्टि में उसका प्रियतम प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने जरा भी इस बात झूलता है, शृगार नहीं । ऐसे ही ज्ञानी जीव के को वकालत नहीं कि ऐसी व्यभिचारिणी स्त्री ज्ञान में प्रतिष्ठित होने के पूर्व, उदय में माये हुए केवल अपने पति के अस्तित्व के कारण सचमुच ही भोगों से उसे निबटना पड़ता है । किन्तु तब भी निर्दोष बनी रहेगी और उसके शील को कोई दोष उसकी दृष्टि में प्रात्मा झूलती है, भोग नहीं । बुध- नहीं लगेगा या उसे किसी अशुभ कर्म का बन्ध नहीं जनजी ने ज्ञानी की जिस मानसिक विकलता का होगा । इन सब बातों का यहां कोई प्रसग ही चित्रण सती नारी के माध्यम से दिखाना चाहा है नहीं है। उनके उस महान प्राशय को तात्कालिक सतीप्रथा की ओर देखे बिना समझ लेना सम्भव ही मैं समाज के जिज्ञासू भाई-बहिनों से अत्यन्त नहीं है। नम्रतापूर्वक यह कहना चाहता हूं कि स्वाध्याय हमें पंडित दीपचन्दजी के उदाहरण को इसी करते समय शब्दार्थ और मतार्थ के साथ भावार्थ कसौटी पर कसना होगा। उनका समय सामाजिक को भी समझने का प्रयत्न करें। अपनी रुढ़ियों और जटिलतानों का समय था । व्यक्ति पूर्ति के लिये विद्वानों के वाक्यों का खींचतान समाज के अनुशासन से बहुत अधिक जकड़ा हग्रा वाला अर्थ लगाना और उसे प्रचारित करना था । उसके छोटे-बड़े सभी प्राचरणों की समाज ईमानदारी नहीं है । इतना प्रौर कि दृष्टान्त की द्वारा अनुवीक्षा की जाती थी और उसके हर एक एकदेश घटाकर उससे दाष्र्टान्त को समझने की स्खलन के लिये दण्ड दिया जाता था। प्राज जैसा कोशिश करनी चाहिये । दृष्टान्त को सवंदेश सत्य व्याक्त स्वातन्त्र्य का प्रथवा उच्छखलता का वाता. नही मानना चाहिये। महावीर जयन्ती स्मारिका 1 3-15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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