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________________ बनाने का यत्न किया गया है, परन्तु वे वर्तमान नागरी अक्षरों के सिरों जैसे लम्बे नहीं अपितु छोटे हैं । ये सिरे पहले पहल इसी लेख में मिलते हैं । 'भि' और 'लिं' में प्रयुक्त 'इ' की मात्रा भरहुत लेख के सदृश है और 'बी' में 'ई' की मात्रा के दाहिनी मोर की खड़ी लकीर को भी वैसा ही रूप दिया गया है। 'ले' में ल के अग्रभाग को दाहिनी मोर नीचे झुकाया गया है और 'गो' में 'पो' की मात्रा नानाघाट प्रभिलेख के 'गो' की मात्रा की तरह व्यञ्जन के ऊपर उसे स्पर्श किये बिना ही गाडी लकीर के रूप में बनायी गयी है । पहले लिपि के आधार पर नानाघाट अभिलेख का समय द्वितीय शती ई० पू० निर्धारित किया गया था । अब विद्वानों ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस लेख की तिथि बाद की है ।41 डा० सरकार का मत है कि हाथीगुम्फा के व, म, प, ह भोर य प्रक्षरों के कोणीय स्वरूप और सीवे प्राधार से इस प्रभिलेख का समय प्रथम शती ई० पू० का अन्तिम चरण प्रतीत होता है। अभिलेख को लेखन पद्धति और भाषा शैली : राजनीतिक दृष्टि से प्राचीन भारतीय अभिलेखों में प्रशस्तिपरक लेख प्रत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसमें राजा का नाम, वंशावली, प्रारम्भिक जीवन, विजय, शासनप्रबन्ध और उसके व्यक्तिगत गुणों का वर्णन होता है । इन्हें दो भागों में विभक्त किया गया है-- शुद्ध प्रशस्ति और मिश्रित प्रशस्ति । शुद्ध प्रशस्ति का पहला उदाहरण खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख और मिश्रित प्रशस्ति का रूद्रदामा का गिरनार प्रस्तर प्रभिलेख (150 ई०) है । खारवेल से पूर्व के अनेक शासकों के अभिलेख प्राप्त हुए हैं । यद्यपि अशोक के अभिलेखों में प्रशस्ति के सभी महत्त्वपूर्ण तत्व विद्यमान हैं तथापि उनमें उद्देश्य, शैली और सजीवता का प्रभाव है । मौर्यों के बाद शुगों का शासन प्रारम्भ हुमा । उनके शासनकाल का कोई भी प्रशस्ति अभिलेख उपलब्ध नहीं है । खारवेल के बाद रूद्रदामा का ही अभिलेख प्राप्त हुआ है जो मिश्रित प्रशस्ति प्रकार का है । अगर यह माना जाय कि शुद्ध प्रशस्ति के विकास में 100 बर्ष और फिर मिश्रित प्रशस्ति के लिये 50 वर्ष लगे तो यह कुल समय 150 वर्ष का हो जाता है । अत: शुद्ध प्रशस्ति के विकास का समय भी पहली शती ई० पू० का अन्तिम चरण निर्धारित किया जा सकता है। सम्पूर्ण प्रभिलेख अपभ्रंश प्राकृत भाषा में है जिसमें अर्धमागधी और जैन ग्रन्थों में प्रयुक्त प्राकृत का पुट है । डा० बरूपा का कथन है कि प्रस्तुत अभिलेख न तो पालि त्रिपिटक शैली का है और न ही प्राद्य जैन आगम, वेद, ब्राह्मण, प्राचीनतर उपनिषद, कल्पसूत्र, नियुक्त और प्रातिसारव्य का । जहाँ तक इसकी गद्यशैली का सम्बन्ध है वह भारतीय साहित्य के इतिहास के मील का पत्थर है । अभिलेख की रचना में प्रोज गुण से युक्त काव्य शैली का विकास परिलक्षित होता है जिससे इसके परवर्ती होने की पुष्टि होती है 144 उदयगिरि-खण्डगिरि का कला और स्थापत्य : खारवेल की तिथि निश्चित करने में उसके शासनकाल में निर्मित कला तथा स्थापत्य के नमूनों से कुछ सहायता मिल सकती है । उदयगिरि-खण्डगिरि की गुहामों की तिथि निर्धारण करते हुए सर जान मार्शल45 हाथीगुम्फा को सभी गुफामों में प्राचीनतम मानते हैं । यह प्रसमान प्राकार की एक प्राकृतिक गफा है, जिसकी पाव भित्तियों को छेनी से अकोर कर संवारा गया है। इतनी महत्त्वहीन गुफा के शीर्ष पर ही खारवेल के अभिलेख की विद्यमानता से अनुमान होता है कि गुफा महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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