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________________ अत्यधिक शान्त मुद्रा में दर्शकों को मोह लेती है। प्रतिमा तथा दूसरी पीठिका पर धातु की पद्मासन इसके पादपीठ में खुदे हुए अधूरे लेख में वर्तमान प्रतिमा अत्यधिक प्राकर्षक है। दक्षिण में अनेक नाम स्पष्ट है, किन्तु समय निश्चित नहीं आकर्षक महावीर की प्रतिमाए प्राप्त हुई हैं। हुप्रा है। दमोह मध्यप्रदेश की महावीर प्रतिमा प्रत्य__ महावीर की मूर्तियों में उनका प्रतीक सिंह धिक पाकर्षक है। म. प्र. के अन्य भागों में भी भी यह पहचान कराता है कि यह महावीर प्रतिमा तथा देश के कोने-कोने में महावीर की प्राचीनतम ही है कंकाली टीले से प्राप्त प्लेट क्र. LXXXV मूर्तियां शोध का विषय बनी हुई हैं। इन सबका की प्रतिमा बिना सिंह प्रतीक के बरबस ही पार• समन्वित संग्रह तैयार कराने की आवश्यकता है। खियों को असमंजस में डाल देती है। कङ्काली की प्लेट क्र. LXXXVII की मूर्ति जो बिना सिर की शिलालेखों में महावीर है, इसके हाथों की भाव मुद्रा से स्पष्ट हो जाता पाषाण शिलाओं में महावीर कथा के अनेक है कि यह महादीर की मूर्ति है। इसी प्रकार भाव संजोये गये हैं। यहां प्रमुख शिलालेखों पर प्लेट क्र.XC तीन तीर्थ करों की प्रतिमा में मध्य- प्रकाश डाला जा रहा है। हाथीगुम्फा के शिलावाली सिंह प्रतीक संजोये महावीर महत्ता को लेख इस क्षेत्र में अग्रगण्य है । एक शिलालेख में उजागर करती है। खारवेल के शारीरिक सौन्दर्य की तुलना महावीर तेईस तीर्थ करों से घिरी हुई कङ्काली टीले के सौन्दर्य से की गई है।" के प्लेट क्र. XCIV की महावीर प्रतिमा अत्यधिक बाड़ली (राजस्थान) से प्राप्त महावीर विष. सुधर सलोनी है। मथुरा के कङ्काली टीले यक शिलालेख अति प्राचीन है जिसे काशीप्रसाद से प्राप्त महावीर की अनेक पद्मासन मूर्तियां जायसवाल ने 374ई० पू० का माना है। 10 अत्यधिक आकर्षक हैं । यहां पुरातत्व का पर्याप्त राजगृह के मणियार मठवाले शिलालेख में यद्यपि भण्डार है। महावीर का उल्लेख नहीं है, परन्तु उसका संबंध भारत कला भवन वाराणसी में संग्रहीत उनसे अवश्य है । महावीर का प्रथम उपदेश विपुल क्र. 161 की मूर्ति जो ध्यान मुद्रा में पासीन है, पर्वत पर हुमा था, जहां पर प्राप्त एक शिलालेख और पीठिका में धर्मचक्र तथा उसके दोनों प्रोर सिंह पूर्ण तो नहीं है किन्तु उसका निम्न भाग विचारहैं, उनके गांभीर्य भाव को उजागर करती है 16 रणीय है जो इस प्रकार है। उड़ीसा से प्राप्त महावीर की, ऋषभदेव के साथ जा श्रेणिक" इससे स्पष्ट खडी प्रतिमा प्रथम व अन्तिम तीर्थ कर की गरिमा होता है कि यह राजा श्रेणिक का महावीर के पर प्रकाश डालती है। समवशरण में जाने से सम्बद्ध है। प्राचीनकाल में भगवान महावीर की वीतराग कङ्काली टीला मथुरा से अनेक महावीर विषमूर्ति का पर्याप्त प्रचार था, यह तथ्य यक शिलालेख प्राप्त हुए हैं जिस पर उनकी स्तुतियां हाथी गुम्फा, खण्डगिरि, उदयगिरि आदि की महा- की गई हैं ।।। प्राडर (धारवाड़) के कीर्तिवर्मा वीर प्रतिमानों से स्पष्ट होता है। कागली जि. प्रथम के शिलालेख में महावीर को लक्ष्यकर मंगलाबेलारी से प्राप्त महावीर की खड्गासन (खड़ी) चरण किया गया है। 2-34 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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