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________________ का निषेध प्रवचनसार की "तत्व प्रदीपिका" टीका है, और वह परिवर्तन भी कभी-कभी नहीं निरन्तर में इस प्रकार किया है। हुप्रा करता है। प्रतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः यह समस्त जगत परिवर्तनशील होकर भी कारकत्व संबंधोऽस्ति ॥ नित्य है और नित्य होकर भी परिवर्तनशील । यह नित्यानित्यात्मक है। इसकी नित्यता स्वत: सिद्ध जीव कर्म का पोर कर्म जीव का कर्ता नहीं है और परिथर्तन स्वभावगत धर्म । है। इस बात को पंचास्तिकाय में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : नित्यता के समान प्रनित्यता भी वस्तु का स्वरूप है सत् उत्पाद व्यब धौव्य से युक्त होता कुव्वं सगं सहाव प्रत्ता कत्ता सगस्स भावस्स । है। उत्पाद और व्यय-परिवर्तनशीलता का नाम ण हि पोग्गलकम्मारणं इदि जिणवयरणं मुणेयध्वं है और ध्रौव्य नित्यता का। प्रत्येक पदार्थ उत्पाद. 161॥ व्यय-ध्रौव्य से युक्त है । प्रतः वह द्रव्य है । द्रव्य कर्म पि सगं कुव्वदि सण सहावेण सम्ममरणारणं । गुण और पर्वायवार होता है । जो द्रव्य के सम्पूर्ण जीवो वि य तारिसो कम्मसहावेण भावेण ॥620 भागों और समस्त अवस्थानों में रहे उसे गुण कहते कम्मं कम्मं कुम्वदि जदि सा हैं तथा गुणों के परिणमन को पर्याय कहा जाता है । अप्पा करेदि अप्पाणं । किध तस्स फलं भुण्जादि प्रप्पा प्रत्येक प्रव्य में अनंत अनन्त गुण होते हैं, कम्मं च देदि फलं ॥631 जिन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है । सामान्य गुण और विशेष गुण । सामान्य गुण सब पपने स्वभाव को करता हुआ प्रात्मा अपने द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं और विशेषभाव का कर्ता है, पुद्गल कर्मों का नहीं। ऐसा गुण अपने-अपने द्रव्य में पृथक-पृथक होते हैं । जिन बचन जानना चाहिए । सामान्य गुण भी अन्नत होते हैं और विशेष कम भी अपने स्वभाव से अपने को करते हैं भी अनन्त । अनन्त गुणों का कथन तो सम्भव और उसी प्रकार जीव भी कर्म स्वभाव भाव से नहीं है । अतः यह सामान्य गुणों का वर्णन शास्त्रों अपने को करता है । यदि कर्म-कर्म को और आत्मा में मिलता है : मात्मा को करे सो फिर कम प्रात्मा को फल क्यों देगा और प्रात्मा उसका फल क्यों भोगेगा ? र अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रयुस्लघुत्व, अर्थात् नहीं भोगेगा। प्रदेशत्व । जहा कर्तावादी दार्शनिकों के सामने जगत प्रत्येक द्रव्य की सत्ता अपने अस्तित्व गुण के ईश्वरकृत होने से सादि स्वीकार किया गया है कारण है न कि पर के कारण। इसी प्रकार प्रत्येक वहां अकर्तावादी या स्वयं कर्तावादी जैन-दर्शन के द्रव्य में एक द्रव्यत्व गुण भी है जिसके कारण अनुसार यह विश्व अनादि अनंत है, इसे न तो प्रत्येक द्रव्य प्रति समय परिणमित होता है, उसे किसी ने बनाया है और न ही कोई इसका विनाश अपने परिणमन में पर के सहयोग की अपेक्षा नहीं कर सकता है, यह स्वयं सिद्ध है, विश्व का कभी रहती है। अतः कोई भी अपने परिणमन में भी सर्वथा नाश नहीं होता, मात्र परिवर्तन होता परमुखापेक्षी नहीं है। यही उसकी स्वतन्त्रता का 1-102 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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