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________________ स्वीकार नहीं, क्योंकि वह सब सहज स्वभाववत् हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं-वह मूढ है, परिणमन है। यही कारण है कि सर्वश्रेष्ठ अज्ञानी है, और इससे विपरीत मानने वाला दिगम्बर प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने सर्वाधिक ज्ञानी है। महत्वपूर्ण ग्रन्थ समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार में ईश्वरवाद के निषेध की तो चर्चा तक ही नहीं ___ जो जीव यह मानता है कि मैं पर-जीवों को को और सम्पूर्ण बल कर्तृत्व के निषेध एवं ज्ञानी । जा जिलाता (रक्षा करता) हूँ और परजीव मुझे को विकार के भी कतत्व का प्रभाव सिद्ध करने । ने जिलाते (रक्षा करते) हैं वह मूढ़ है, अज्ञानी है, पर दिया। जो समस्त कतत्व एवं कर्मत्व के भार आर इसस विपरा और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है। से मुक्त हो, उसे ही ज्ञानी कहा है । जो यह मानता है कि मैं पर जीवों को सुखीकुन्द-कृन्द की समस्या अपने शिष्यों को ईश्वर दुःखी करता हूँ और परजीव मुझे सुखी-दुःखी वाद से उभारने की नहीं वरन मान्यता में प्रत्येक करते हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत व्यक्ति स्वयं एक छोटा-मोटा ईश्वर बना पा है मानने वाला ज्ञानी है। पौर माने बैठा है कि "मै अपने कुटुम्ब, परिवार में जीवों को टखी-सखी करता है. वांधता देश व समाज को पालता हूँ', उन्हें सुखी करता हूँ हूँ तथा छुड़ाता हूँ ऐसी जो तेरी मूढ़मति (मोहित और शत्रुमादिक को मारता हूँ' एवं दु:खी करता बद्धि) हैं वह निरर्थक होने से वास्तव में मिथ्या हूँ अथवा मै भी दूसरे के द्वारा सुखी-दुःखी किया है। जाता हू' या मारा बचाया जाता हूँ।" इस मिथ्या मान्यता से बचाने की थी। अतः उन्होंने कर्तावांद उनका प्रकर्तृत्ववाद "मात्र ईश्वर जगत का सम्बन्धी उक्त मान्यता का कठोरता से निषेध किया । कर्ता नहीं है" के निषेधात्मक मार्ग तक सीमित है । उन्हीं के शब्दों में : है। वह भी इसलिए कि वे जैन हैं और जैन दर्शन जो मणदि हिंसामि य हिंसिज्जामि ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता है, अतः वे य परेहि सत्तोहिं। भी नहीं मानते। सो मूढ़ां प्रराणाणी पाणी एतो दु विवरीदो ईश्वर को कर्ता नहीं मानने पर भी स्वयं 1247॥ जो मण्णादि जीवेमि व जीविज्जामि कर्तृत्व उनकी समझ में नहीं पाता। अतः जड़ .य परेहिं सत्तेहि। __ कर्म को कर्ता कहते देखे जाते हैं। जड़-कर्म के सो मूढी अण्णाणी पाणी एतो सद्भाव कोनिज के विकार का कर्ता और उसके दु विवरोदी ।।2500 प्रभाव का स्वभाव को कर्ता मानने वालों से तो जो अणणा दु मण्णादि दुक्खिद ईश्वरवादी ही अच्छे थे। क्योंकि वे अपने अच्छेसहिदे करोमि सस्ते ति। बुरे कर्तृत्व की बागडोर एक सर्व-शक्तिसम्पन्न सो मुढो अप्णाणी णाणी एतो द विवरोदी चेतन ईश्वर को तो सौंपते हैं, इन्होंने तो जडकर्म के 125311 हाथ अपने को बेचा है। इस प्रकार से ये लोग दुखिदसुहिदे जीवे करेमि बधेमि तह विमोचेमि। भी ईश्वरवादी ही हैं क्योंकि इन्होने चेतनेश्वर को जो एसा मूढमई रिणरत्यया सा हु देमिच्छा ।।266॥ स्वीकार न कर, जडेश्वर को स्वीकार किया है । जो यह मानता है कि मैं पर जीवों को मारता पर के साथ प्रात्मा कारणताक के सम्बन्ध महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-101 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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