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________________ काल नदी के उस प्रवाह की तरह है जिसका जल पुनः लौटकर नहीं पाता । चाहे कोई कितना ही प्रयत्न करे किन्तु गया हुआ एक क्षण भी लौट कर नहीं पा सकता। बुद्धिमान वे हैं जो इसका सदुपयोग करते हैं। अनन्त पर्यायों में भटकते-भटकते काकतालीय न्याय की तरह यह मानव जन्म मिलता है । केवल यह ही पर्याय है जिसमें जीव अपने हिताहित का विवेक कर सन्मार्ग प्राश्रय ग्रहण कर अपना उत्थान कर सकता है और जन्म मरण के चक्कर से छटकारा पा सकता है। अन्य किसी पर्याय में ऐसा होना संभव नहीं है। जिन्होंने इस समय का सदुपयोग किया वे इस संसार सागर के पार लग गए। विद्वान् निबन्धकार ने समय की महत्ता बताते हए जो यह कहा है कि 'समय न चूकत चतुर नर' वह सर्वथा सत्य है। प्र० सम्पादक समय न चूकत चतुर नर - * डा. नरेन्द्र भानावत अंग्रेजी में एक कहावत है-Time is है। जो इसको वर्तमानता को न पहचान कर मात्र money अर्थात् समय ही धन है। वास्तव में अतीत की गहराइयों में डूबा रहता है अथवा समय जीवन की अमूल्य सम्पत्ति है । गई सम्पत्ति भविष्य की स्वप्निल छाया में घिरा रहता है, परिश्रम से, विस्मृत ज्ञान अध्ययन से, नष्ट स्वास्थ्य वह कभी समय की जीवन्तता से साक्षात्कार नहीं औषधि से एवं नष्ट संयम गुरुकृपा से पुनः मिल कर पाता । जो क्षण की वर्तमानता को थामे रहता सकता है लेकिन गया हुआ वक्त वापस कभी नहीं है, वही जीवन का वास्तविक प्रानन्द ले पाता है । मिल सकता । इसीलिये समय को अमूल्य धन लेटिन में एक कहावत है कि 'समय के सिर में कहा है ऐसा धन जो किसी भी कीमत पर पुनः केवल आगे की ओर बाल होते हैं, पीछे की ओर प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः समझदार वह गंजा होता है । यदि तुम उसके आगे के बाल मनुष्य समय का पूराःपूरा उपयोग करते हैं:-समय को पकड़ लो तो वह तुम्हारे हाथ पा जायगा न चूकत चतुर नर। परन्तु यदि तुम उसे आगे से निकल जाने दोगे तो फिर संसार की ऐसी काई शक्ति नहीं जो उसे 'समय बड़ो बलवान' कहकर समय की अनन्त पकड़ सके।" समय की इस तस्वीर को पहचान शक्ति का परिचय दिया गया है। इसका अर्थ कर हमें उसके बालों को, वर्तमान क्षणों को यह है कि समय निरन्तर गतिशील है, वह एक क्षण मजबूती से पकड़ कर, जो काम करना है, उसे भी नहीं रुकता, और वर्तमान में ही जीवित रहता तुरन्त कर लेना चाहिये । महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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