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________________ जैन धर्म के महात्माओं को तीर्थङ्कर कहा इस तत्व को एक उदाहरण से समझा जा जाता है । ज्ञान का प्रवर्तन जिन ज्ञानी वीतराग सकता है । जब हम किसी स्वर्ण निर्मित कङ्कण को महान् पुरुषों ने किया है वे तीर्थङ्कर कहलाये। देखते हैं तो उसके सम्बन्ध में कुछ कहने या लिखने धर्मरूपी तीर्थ के निर्माता मुनिजन ही ये तीर्थङ्कर का प्रकार क्या हो सकता है ? यही न कि, यह थे (तरति संसार महार्णवं येन निमित्तेन तत् तीर्थम्- कङ्कण स्वर्ण निर्मित है, सोने से ही इसका निर्माण उमेश मिश्र-भारतीय दर्शन पृ० 98) जैनधर्म में हुआ है। सोने को शुद्ध करके इसे सुनार ने बनाया इन तीर्थङ्करों की संख्या चौबीस मानी गई है। हैं। सोना यो तो मिट्टी ही है, पर यह सामान्य इनमें सर्वप्रथम ऋषभदेव तथा अन्तिम भगवान् मिट्टी नहीं। यह एक पीले वर्ण का धातु है, इसके महावीर स्वामी थे। परमाणु लोहे से कुछ मुलायम होते हैं। इस सोने को सुनार ने ठोक पीट कर कङ्कण का रूप दे दिया इन तीर्थङ्करों द्वारा प्रवर्तित जैनधर्म का है। वास्तव में तो यह सोना ही है, आदि-आदि । दार्शनिक पक्ष अत्यन्त सुदृढ़ है । बाद के जैन यही वर्णन स्वपर्याय कहाता है । अब यदि हम इस विद्वानों ने अपना समस्त बौद्धिक बल लगा कर जिस कङ्कण में परपर्याय के सम्बन्ध को जोड़े तो इसका दार्शनिक चिन्तन को प्रस्तुत किया है वह बरबस वर्णन इस प्रकार किया जायेगा-यह कङ्कण है, विचारकों का ध्यान आकर्षित करता है । जैन दर्शन अंगूठी नहीं है, हार नहीं है, बाली नहीं है, कर्णफूल का एक सुनिश्चित अभिमत यह है कि विश्व की नहीं है, नाक की लौंग नहीं है, नथ नहीं है । यह समस्त वस्तुओं में स्थैर्य तथा विनाश दोनों ही धातु का तो बना है परन्तु यह लोहे का नहीं है. समानरूपेण रहते हैं । विश्व प्रपञ्च की कोई भी पीतल का नहीं है, चांदी का नहीं है, आदि-प्रादि वस्तू न तो एकान्तत: नित्य है और न एकान्ततः अनन्त निषेध करण के साथ जोड़े जा सकते हैं। अनित्य है । नित्यता और अनित्यता सभी वस्तुओं में समानरूप से पाई जाती है। जैन दर्शन ने इस विधि निषेधात्मक दृष्टि से यह पाया परमाणमों के संघात को संसार के समस्त पदार्थों जाता है कि संसार में ऐसा उदाहरण सम्भव नहीं का उत्पादक कारण स्वीकार किया है। जिसमें परस्पर विरोधी गुणों का सम्बन्ध स्थापित न किया जा सके । जैसे किसी दरिद्र व्यक्ति के वस्तुओं के स्वरूप को देखने की जैन द शनिकों साथ धन सम्पन्नता का सम्बन्ध विधिमुख से नहीं की दृष्टि भी बड़ी पैनी है । जैन दार्शनिक प्रत्येक जोड़ा जा सकता है तो उससे क्या हम निषेध मुख वस्तु का निरीक्षण तथा परीक्षण सर्वदर्शन सम्मत से दरिद्र व्यक्ति के साथ दरिद्रता तथा धन सम्पन्नता विधि निषेध शैली से करते हैं। इस विधि निषेध का सम्बन्ध जोड़ सकते हैं। हम कह सकते हैं कि दृष्टि से वस्तु के जो गुण सत्ता सूचक हैं उन्हें यह व्यक्ति दरिद्र है, धनवान नहीं है, यदि यह धन 'विपर्याय' कहा जाता है तथा जो निषेध मुख से सम्पन्न होता तो दरिद्र न होता । इसमें धन का कहे जाते हैं, उन्हें 'परपर्याय' नाम दिया गया है। प्रभाव है अतः यह दरिद्र है। इस प्रकार जैनदर्शन किसी भी वस्तु का परपर्याय से वर्णन करना संभव ने एक ही वस्तु में अनन्त धर्मों या गुणों की स्थानहीं है, अतः स्वपर्याय से ही वस्तु स्वरूप की अव- पना की है, इसी कारण जैन दार्शनिक प्रत्येक वस्तु गति मुख्यरूप से होती है । परन्तु इस स्वपर्याय के को अनन्त धर्मात्मक स्वीकार करते हैं। इसीलिये वर्णन भी वस्तु के गुणों, देश तथा काल आदि के जैनधर्म को स्याद्वाद या अनेकान्तवाद को मानने प्राधार पर एक नहीं अपितु अनेक होते हैं। वाला धर्म कहा जाता है। 1-88 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jainelibrar
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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