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________________ reliance जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु में दो विरोधी तत्वों का अस्तित्व मानता है। वह सत् का लक्षण ही उत्पाद व्यय और ध्रौव्य संयुक्त करता है। वस्तु द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य है । जैनों की इस मान्यता में विश्व के उस सम्पूर्ण दर्शनों का समन्वय हो जाता है जो कि वस्तु के केवल एक ही धर्म को मानते हैं दूसरे धर्म को नहीं । जनों का यह अनेकान्तवाद विश्व के समस्त दर्शनों में ऐक्य, सहभाव तथा समभाव का प्रचार करने की प्रव्यर्थ पौर्षाव है । कैसे ? यह पढ़िये प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् के इस निबन्ध में । प्र. सम्पादक जैन दर्शन की एक दिव्यदृष्टि प्राचार्य रमेशचन्द्र शास्त्री, अजमेर भारतीय विचारधारा को हम अनादिकाल से प्रथम ब्रह्मवादी विचार-परम्परा का उद्भव ही दो रूपों में विभक्त पाते हैं । पहली, परम्परा स्थल पंजाब तथा उत्तर प्रदेश का पश्चिमी भाग मूलक ब्राह्मण्य अथवा ब्रह्मवादी जिसका विकास रहा है तथा दूसरी श्रमण विचार परम्परा का वेद तथा उनके पश्चात् लिखे गए साहित्य के प्राधार उद्भव प्रासाम, बंगाल बिहार, मध्यप्रदेश, राजपर हुअा। दूसरी, पुरुषार्थ मूलक, जिसे श्रामण्य स्थान तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश रहा है। इस श्रमण अथवा श्रमण प्रधान कहा जाता है, जिसमें प्राचरण विचार धारा के जन्मदाता जैन थे। जो स्वयं को और व्यवहार को प्रधानता मिली । यहां यह ज'न मुख्य रूप से भगवान महावीर स्वामी के अनुयायी लेना चाहिए कि श्रमण शब्द का अर्थ ही श्रम मानते हैं। अर्थात् पुरुषार्थ है। इस कारण इस धारा को श्रमण संस्कृति का प्रवर्तक जैन धर्म प्रागैति'पुरुषार्थ मूलक' कहना ही उपयुक्त प्रतीत होता हासिक धर्म रहा है । यह बौद्ध धर्म की अपेक्षा प्राचीन है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित जैनधर्म से सम्बन्ध रखने वाले विवरणों का अध्ययन तथा ये दोनों विचारधारायें कतिपय अंशों में एक करने पर सभी विद्वानों ने जैनियों के इस दूसरे की पूरक रहीं और कुछ अंशों में परस्पर विरोधी शों में परस्पर विरोधी मन्तव्य का समर्थन किया है कि जैन मत का भी रहीं । एक ओर इनमें सामञ्जस्य की भावना अविर्भाव वैदिकमत के प्रास-पास या उसके निकट. से पारस्परिक आदान-प्रदान चलता रहा तथा वर्ती पश्चात् समय में ही हया हैं। मोहन-जो दरों दूसरी ओर समस्त भारतीय समाज तथा राष्ट्र की से प्राप्त ध्यानावस्थित नग्न योगियो की मतियों एकता को अक्षुण्ण रखने में भी इनका महत्त्वपूर्ण से जैन श्रमण परम्परा की प्राचीनता सिद्ध होती योगदान रहा है। है ऐसा अनेक विद्वान् स्वीकार करते हैं। महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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