SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकार के प्रयत्न दृष्टिगत होते हैं—(क) बहुआयामी सत्ता या जागना, तो उन्होंने कहा कि पापियों का सोना व धार्मिकों के किसी पक्ष विशेष की स्वीकृति के आधार पर अपनी का जागना अच्छा है। जैन दार्शनिकों में इस अनेकांत दृष्टि दार्शनिक मान्यता का प्रस्तुतीकरण तथा (ख) उन एकपक्षीय का व्यावहारिक प्रयोग सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने किया। (ऐकांतिक) अवधारणाओं के समन्वय का प्रयास। उन्होंने उद्घोष किया कि संसार के एकमात्र गुरु उस समन्वयसूत्र का सृजन ही अनेकांतवाद की व्यावहारिक अनेकांतवाद को नमस्कार है जिसके बिना संसार का उपादेयता को स्पष्ट करता है। वस्तुतः अनेकांतवाद का व्यवहार ही असंभव है। परमतत्त्व या परमार्थ की बात बहुत कार्य त्रिविध है—प्रथम, यह विभिन्न ऐकांतिक की जा सकती है, किंतु वह मनुष्य जो इस संसार में रहता है अवधारणाओं के गुण-दोषों की तार्किक समीक्षा करता है। उसके लिए परमार्थ सत्य की बात करना उतनी सार्थक नहीं दूसरे, वह उस समीक्षा में यह देखता है कि इस अवधारणा है जितनी व्यवहार जगत की, और व्यवहार का क्षेत्र एक में जो सत्यांश है वह किस अपेक्षा से है। तीसरे, वह उन ऐसा क्षेत्र है जहां अनेकांत दृष्टि के बिना काम नहीं चलता सापेक्षिक सत्यांशों के आधार पर, उन एकांतवादों को है। परिवार में एक ही स्त्री को कोई पत्नी कहता है, कोई समन्वित करता है। पुत्रवधू कहता है, कोई मां कहता है तो कोई दादी, कोई बहन कहता है तो कोई चाची, नानी आदि नामों से पुकारता है। इस प्रकार अनेकांतवाद मात्र तार्किक पद्धति न होकर एक व्यक्ति के संदर्भ में विभिन्न पारिवारिक संबंधों की इस एक व्यावहारिक दार्शनिक पद्धति है। यह एक सिद्धांत मात्र संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। आर्थिक क्षेत्र न होकर, सत्य को देखने और समझने की पद्धति में भी अनेक ऐसे प्रश्न हैं जो किसी एक तात्त्विक एकांतवादी (Method or system)-विशेष है, और यही उसकी अवधारणा के आधार पर नहीं सलझाए जा सकते हैं। व्यावहारिक उपादेयता है। उदाहरण के रूप में यदि हम अनेकांतवाद का व्यावहारिक पक्ष एकांतरूप से व्यक्ति को अनेकांत का व्यावहारिक अनेकांत विचार दृष्टि विभिन्न धर्म परिवर्तनशील मानते हैं तो यह कहा जीवन में क्या मूल्य और महत्त्व है, संप्रदायों की समाप्ति द्वारा एकता जा सकता है कि एक सीमा तक इसका यदि ऐतिहासिक दृष्टि से का प्रयास नहीं करती है। क्योंकि उनमें निहित सत्यों को देखने का अध्ययन करें तो हमें सर्वप्रथम वैयक्तिक रुचि-भेद एवं क्षमता-भेद प्रयत्न किया गया है। तथा देशकालगत भिन्नताओं के उसका उपयोग विवाद परांग्मुखता दार्शनिक विचारों के समन्वय का होते हुए विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों के साथ-साथ पर-पक्ष की की उपस्थिति अपरिहार्य है। एक आधार अनेकांतवाद अनावश्यक आलोचना व स्व-पक्ष धर्म या एक संप्रदाय का नारा भगवान महावीर और बुद्ध की अतिरेक प्रशंसा से बचना है। असंगत एवं अव्यावहारिक ही नहीं, के समय भारत में वैचारिक संघर्ष इस प्रकार का निर्देश हमें सर्वप्रथम अपितु अशांति और संघर्ष का और दार्शनिक विवाद अपनी चरम सूत्रकृतांग (1/1/2/23) में कारण भी है। अनेकांत विभिन्न सीमा पर थे। जैन आगमों के मिलता है। जहां यह कहा गया है धर्म-संप्रदायों की समाप्ति का अनुसार उस समय 3 63 और कि जो अपने पक्ष की प्रशंसा और प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक बौद्ध आगमों के अनुसार 62 पर-पक्ष की निंदा में रत हैं, वे पूर्णता में सुसंगत रूप से संयोजित दार्शनिक मत प्रचलित थे। दूसरों के प्रति द्वेष-वृत्ति का विकास करने का प्रयास हो सकता है। वैचारिक आग्रह और मतांधता के करते हैं, परिणामस्वरूप संसार में लेकिन इसके लिए प्राथमिक उस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की भ्रमण करते हैं। साथ ही महावीर आवश्यकता है धार्मिक सहिष्णुता आवश्यकता थी, जो लोगों को और सर्वधर्म समभाव की। चाहते थे कि इस अनेकांत शैली के आग्रह एवं मतांधता से ऊपर माध्यम से कथ्य के सम्यक् रूप से उठकर सही दिशा-निर्देश दे सके। स्पष्टीकरण हो और इस तरह का भगवान बुद्ध ने इस आग्रह एवं प्रयास उन्होंने भगवतीसूत्र में अनैकांतिक उत्तरों के माध्यम मतांधता से ऊपर उठने के लिए विवाद परांग्मुखता को से किया है। जैसे जब उनसे पूछा गया कि सोना अच्छा है अपनाया। सुत्तनिपात में वे कहते हैं, 'मैं विवाद के दो फल मा स्वर्ण जयंती वर्षH RE 66. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy