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________________ - अनात्मवाद की समीक्षा करते हुए यह देखना कि तृष्णा के रहस्योद्घाटन के लिए प्रयत्नशील थे। इन जिज्ञासु चिंतकों उच्छेद के लिए क्षणिकवाद और अनात्मवाद की दार्शनिक के सामने अनेक समस्याएं थीं, जैसे इस दृश्यमान विश्व अवधारणाएं कितनी आवश्यक एवं उपयोगी हैं। की उत्पत्ति कैसे हुई, इसका मूल कारण क्या है? वह मूल 2. प्रत्येक दार्शनिक अवधारणा की सापेक्षिक सत्यता का कारण या परम तत्त्व जड़ है या चेतन? पुनः यह जगत सत् को स्वीकार करना और यह निश्चित करना कि उसमें जो से उत्पन्न हुआ है या असत् से? यदि यह संसार सत् से सत्यांश है, वह किस अपेक्षा-विशेष से है। जैसे यह बताना उत्पन्न हुआ तो वह सत् या मूल तत्त्व एक है या अनेक। कि सत्ता की नित्यता की अवधारणा द्रव्य की अपेक्षा से यदि वह एक है तो वह पुरुष (ब्रह्म) है या पुरुषेतर (जड़ अर्थात् द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सत्य है और सत्ता की तर तत्त्व) है, यदि पुरुषेतर है तो वह जल, वायु, अग्नि, आकाश अनित्यता उसकी पर्याय की अपेक्षा से औचित्यपूर्ण है। इस आदि में से क्या है? पुनः यदि वह अनेक है तो वे अनेक प्रकार वह प्रत्येक दर्शन की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार तत्त्व कौन-से हैं ? पुनः यदि यह संसार सृष्ट है तो वह स्रष्टा कौन है? उसने जगत की सृष्टि क्यों की और किससे की? करता है और वह सापेक्षिक सत्यता किस अपेक्षा से है, उसे इसके विपरीत यदि यह असृष्ट है तो क्या अनादि है? पुनः भी स्पष्ट करता है। यदि यह अनादि है तो इसमें होने वाले उत्पाद, व्ययरूपी 3. अनेकांतवाद का तीसरा महत्त्वपूर्ण उपयोगी कार्य परिवर्तनों की क्या व्याख्या है, आदि। इस प्रकार के अनेक विभिन्न ऐकांतिक प्रश्न मानव-मस्तिष्क में उठ मान्यताओं को समन्वय के रहे थे। चिंतकों ने अपने सूत्र में पिरोकर उनके एकांत सच्चा अनेकांतवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं चिंतन एवं अनुभव के बल रूपी दोष का निराकरण करता। वह संपूर्ण दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस पर इनके अनेक प्रकार से करते हुए उनके पारस्परिक प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे कोई उत्तरों दिए। चिंतकों या विद्वेष का निराकरण कर पिता अपने पुत्र को, क्योंकि अनेकांतवादी की दार्शनिकों के इन विविध उनमें सौहार्द और सौमनस्य न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती। सच्चा शास्त्रज्ञ उत्तर या समाधानों का स्थापित कर देना है। जिस कहे जाने का अधिकारी तो वही है, जो स्याद्वाद का आलंबन लेकर संपूर्ण दर्शनों में समान भाव कारण दोहरा था, एक ओर प्रकार एक वैद्य किसी विषरखता है। वास्तव में माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों वस्तु तत्त्व या सत्ता की विशेष के दोषों की शुद्धि का गूढ़ रहस्य है। माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र बहुआयामिता और दूसरी करके उसे ओषधि बना देता के पद का ज्ञान भी सफल है अन्यथा करोड़ों ओर मानवीय बुद्धि, ऐंद्रिक है उसी प्रकार अनेकांतवाद शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है। क्योंकि जहां आग्रह अनुभूति एवं अभिव्यक्तिभी दर्शनों अथवा मान्यताओं बुद्धि होती है वहां विपक्ष में निहित सत्य का सामर्थ्य की सीमितता। के एकांतरूपी विष का दर्शन संभव नहीं होता। वस्तुतः शाश्वतवाद, फलतः प्रत्येक चिंतक या निराकरण करके उन्हें एक- उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, दार्शनिक ने सत्ता को अलगदूसरे का सहयोगी बना देता अभेदवाद, द्वैतवाद, हेतुवाद, नियतिवाद, अलग रूप में व्याख्यायित है। अनेकांतवाद के उक्त पुरुषार्थवाद आदि जितने भी दार्शनिक मत किया। तीनों ही कार्य (Functions) मतांतर हैं, वे सभी परम सत्ता के विभिन्न अनेकांतवाद का मूल उसकी व्यावहारिक पहलुओं से लिए गए चित्र हैं और आपेक्षिक रूप से सत्य हैं। द्रव्य दृष्टि और पर्याय दृष्टि के प्रयोजन सत्य को उसके उपादेयता को स्पष्ट कर आधार पर इन विरोधी सिद्धांतों में समन्वय विभिन्न आयामों में देखने, देते हैं। किया जा सकता है। अतः एक सच्चा स्याद्वादी समझने और समझाने का दर्शन का जन्म किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी प्रयत्न है। यही कारण है कि मानवीय जिज्ञासा से होता दर्शनों का आराधक होता है। मानवीय प्रज्ञा के विकास के है। ईसा पूर्व छठी शती में L प्रथम चरण से ही ऐसे प्रयास मनुष्य की यह जिज्ञासा परिलक्षित होने लगते हैं। पर्याप्त रूप से प्रौढ़ हो चुकी थी। अनेक विचारक विश्व के भारतीय मनीषा के प्रारंभिक काल में हमें इस दिशा में दो SENSE - I HATEL स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | । अनेकांत विशेष.65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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