SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बताता हूं। एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है और दूसरे नौकरी मिलेगी, वह उनसे पृथक् होगा। इस प्रकार व्यवहार कलह एवं अशांति का कारण होता है। अतः निर्वाण को के क्षेत्र में असंगतियां होंगी, यदि इसके विरुद्ध हम यह निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न पड़े माने कि व्यक्तित्व में परिवर्तन ही नहीं होता तो उसके (सुत्तनिपात 51-21) | बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित सभी प्रशिक्षण की व्यवस्था निरर्थक कहलाएगी। इस प्रकार पर-विरोधी दार्शनिक दृष्टिकोणों को सदोष बताया और इस अनेकांत दृष्टि का मूल आधार व्यवहार की समस्याओं का प्रकार अपने को किसी भी दार्शनिक मान्यता के साथ नहीं निराकरण करना है। प्राचीन आगमों में इसका उपयोग बांधा। वे कहते हैं कि पंडित किसी दृष्टि या वाद में नहीं विवादों और आग्रहों से बचने तथा कथनों को स्पष्ट करने पड़ता (सुत्तनिपात-51-3)। बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक के लिए ही किया गया है। सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन वाद-विवाद निर्वाण मार्ग के साधक के कार्य नहीं हैं दिवाकर ने इस अनेकांत दृष्टि का प्रयोग दार्शनिक विरोधों (सुत्तनिपात-46-8-9)। अनासक्त, मुक्त पुरुष के पास के समन्वय की दिशा में किया। उन्होंने एक ओर परस्पर विवादरूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। विरोधी ऐकांतिक मान्यताओं में दोषों की उद्भावना करके इसी प्रकार भगवान महावीर ने भी आग्रह को साधना का बताया कि कोई भी ऐकांतिक मान्यता न तो व्यावहारिक सम्यक् पथ नहीं समझा। उन्होंने कहा कि आग्रह, मतांधता है, न ही सत्ता का सम्यक् एवं सत्य स्वरूप ही प्रस्तुत या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है। जो व्यक्ति अपने मत की करती है। उनकी विशेषता यह रही कि वे केवल दोषों की प्रशंसा और दूसरों की निंदा करने में ही पांडित्य दिखाते हैं, उद्भावना करके ही सीमित नहीं रहे अपितु उन्होंने उन वे संसार-चक्र में घूमते रहते हैं (सूत्रकृतांग 1/1/2-23)। परस्पर विरोधी धारणाओं में निहित सत्यता का भी दर्शन इस प्रकार भगवान महावीर व बुद्ध दोनों ही उस युग की किया और सत्य के समग्र स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए आग्रह वृत्ति एवं मतांधता से जनमानस को मुक्त करना उन्हें समन्वित करने का प्रयत्न भी किया। जहां उनके पूर्व चाहते थे, फिर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में थोड़ा तक दूसरे दर्शनों को मिथ्या कहकर उनका मखौल उड़ाया अंतर था। जहां बुद्ध इन विवादों से बचने की सलाह दे रहे जाता था, वहीं उन्होंने विभिन्न नयों के आधार पर उनकी थे, वहीं महावीर इनके समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि सत्यता को स्पष्ट किया। मात्र यही नहीं, जिन-मत को भी प्रस्तुत कर रहे थे, जिसका परिणाम स्याद्वाद है। मिथ्या मत-समूह कहकर उन सभी के प्रति समादर का स्याद्वाद विविध दार्शनिक एकांतवादों में समन्वय भाव प्रकट किया। सिद्धसेन के पश्चात् यद्यपि समन्तभद्र ने करने का प्रयास करता है। उसकी दृष्टि में अनित्यवाद- भी ऐसा ही एक प्रयास किया और विभिन्न दर्शनों में क्षणिकवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, भेदवाद-अभेदवाद आदि निहित सापेक्षिक सत्यों को विभिन्न नयों के आधार पर सभी वस्तु स्वरूप के आंशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं। व्याख्यायित किया, फिर भी जिन-मत को मिथ्या मतइनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है, किन्तु पूर्ण सत्य भी समूह कहने का जो साहस सिद्धसेन के चिंतन में था, वह नहीं है। यदि इनको कोई असत्य बताता है तो वह आंशिक समन्तभद्र के चिंतन में नहीं आ पाया। सिद्धसेन और सत्य को पूर्ण सत्य मान लेने का उसका आग्रह ही है। समन्तभद्र के पश्चात् जिस दार्शनिक ने अनेकांत दृष्टि की स्याद्वाद अपेक्षाभेद से इन सभी के बीच समन्वय करने का समन्वयशीलता का सर्वाधिक उपयोग किया वे आचार्य प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य तब असत्य हरिभद्र हैं। हरिभद्र से पूर्व दिगंबर परंपरा के कुन्दकुन्द ने बन जाता है, जब हम आग्रही दृष्टि से उसे देखते हैं। यदि भी एक प्रयत्न किया था। उन्होंने नियमसार में व्यक्ति की हम हमारी दृष्टि को या अपने को आग्रह से ऊपर उठाकर बहुआयामिता को स्पष्ट करते हुए यह कहा था कि व्यक्ति देखें तो हमें सत्य का दर्शन हो सकता है। सत्य का सच्चा को स्व-मत व पर-मत के विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। दर्शन आधुनिक शिक्षा प्रणाली में परीक्षा, प्रमाण-पत्र व किंतु अनेकांत दृष्टि से विभिन्न दर्शनों में पारस्परिक उसके आधार पर मिलने वाली नौकरी आदि में एकरूपता समन्वय का जो प्रयत्न हरिभद्र ने, विशेष रूप से अपने से नहीं होगा। यदि व्यक्ति परिवर्तनशील है, क्षण-क्षण ग्रंथ शास्त्रवार्तासमुच्चय में किया वह निश्चय ही विरल है। बदलता ही रहता है तो अध्ययन करने वाला छात्र भिन्न हरिभद्र ने अनेक प्रसंगों में अपनी वैचारिक उदारता व होगा और जिसे प्रमाण-पत्र मिलेगा वह परीक्षा देने वाले समन्वयशीलता का परिचय दिया है जिसकी चर्चा हमने से भिन्न होगा और उन प्रमाण-पत्रों के आधार पर जिसे अपनी लघु पुस्तिका 'आचार्य हरिभद्र व उनका अवदान' में स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy