SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जानकर निरंतर यह मनन करता है कि मैं ब्रह्म हूं। इसके निश्चित रूप से एक अवयवी अपने अवयवों के अतिरिक्त फलस्वरूप उसे स्वयं के सार्वभौमिक, कूटस्थनित्य, साक्षी- कुछ नहीं है। लेकिन वह अपने अवयवों का समूह मात्र न रूप सच्चिदानंदस्वरूप की क्रमशः अधिक गहन अनुभूति होकर उनमें व्याप्त एक अखंड सत्ता है। संयोग संबंध से होते हुए अंत में इस अनुभूति के चरम प्रकर्ष-रूप समाधि संबंधित अनेक अवयव परस्पर एक-दूसरे से संबंधित और की अवस्था प्राप्त होती है। इस प्रकार समाधि की अवस्था प्रभावित होकर एक अवयवीरूपता को प्राप्त करते हैं। इस शुद्ध निर्विशेष स्व-संवेदन मात्र न होकर विशिष्ट प्रकार की अवस्था में वे एक ऐसे विशिष्ट स्वरूप को प्राप्त करते हैं स्वानुभूति है जो इस अवस्था में ज्ञात हो रहे तत्त्व के जिसका उनमें अन्यथा अभाव होता है। उदाहरण के लिए एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप को सिद्ध करती है। विभिन्न तंतुओं में ओढ़ने-बिछाने रूप कार्य को करने की श्रवण, मनन, निदिध्यासन की प्रक्रियापूर्वक समाधि की सामर्थ्य का अभाव होता है, लेकिन वे ही तंतु जब परस्पर अवस्था की प्राप्ति न केवल एक सत्ता के अनेक गुणात्मक आतान-वितान रूप से संयुक्त होकर एक वस्त्ररूप विशिष्ट स्वरूप को बल्कि उसके अनेक क्रमभावी विशेष पर्यायों में स्वरूप को प्राप्त करते हैं तो उनमें यह नवीन सामर्थ्य उत्पन्न व्याप्त एक अस्तित्व को भी सिद्ध करती है। हो जाता है। इस प्रकार वस्त्र के अनेक तंतुओं के समूह पर जिस प्रकार हमें अनेक गुणों के ज्ञानपूर्वक एक द्रव्य आरोपित एक नाम मात्र न होकर एक वास्तविक सत्ता होने के का और द्रव्य के ज्ञानपूर्वक उसके एक गुण के विशिष्ट कारण विशिष्ट रूप से संयुक्त अनेक तंतुओं के ज्ञानपूर्वक स्वरूप का ज्ञान होता है। उसी प्रकार हम अनेक अवयवों के होने वाला एक वस्त्र का ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। ज्ञानपूर्वक एक अवयवी को जानते हैं तथा जैसे-जैसे अवयवी एक ज्ञेय पदार्थ के अवयय-अवयव्यात्मक स्वरूप को की समझ में वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे उसके अवयवों स्पष्टतः समझने के लिए हम शरीर के दृष्टांत पर विचार की समझ भी अधिक विकसित और परिष्कृत होती जाती है, करें। हाथ, पैर, सिर, हृदय आदि अनेक अंग एक विशेष जो एक स्थूल वस्तु के अवयव अवयव्यात्मक स्वरूप को प्रकार से संयुक्त होकर एक जटिल संगठन–शरीररूपता सिद्ध करती है। बौद्ध कहते हैं कि अनेक अवयव ही को प्राप्त करते हैं। इस संगठन के सभी अंगों का अपनावास्तविक और स्वतंत्र सत्ताएं हैं। उन अनेक अवयवों का एक अपना निश्चित और विशिष्ट स्वरूप होता है, अपनी-अपनी अवयवीरूप में होने वाला ज्ञान अनादि वासनाजनित शक्तियां और उपयोगिताएं होती हैं. लेकिन ये अपने इस मानसिक कल्पना मात्र होने के कारण मिथ्या है। जिस प्रकार विशिष्ट स्वरूप को शरीर के एक अंग के रूप में ही अर्थात दूर से देखने पर विरल केशों में घनाकारता का भ्रामक शरीर के अन्य अंगों से संबंधित और प्रभावित होकर ही प्रतिभास होता है उसी प्रकार हम परस्पर स्वतंत्र अनेक प्राप्त करते हैं तथा शरीर से अलग हो जाने पर इनका इन परमाणुओं में निकटता और सादृश्य के कारण एकत्व का विशिष्ट स्वरूपों में अस्तित्व समाप्त हो जाता है। उदाहरण आरोप करके उन्हें एक अवयवी-घट, वस्त्र आदि रूप में के लिए हाथ का अपना एक निश्चित आकार होता है। वह पहचानते हैं। वस्तुतः घट, वस्त्र आदि स्थल पदार्थ वस्तुओं को उठाने, रखने आदि कार्यों को करने की क्षमता वास्तविक पदार्थ न होकर अनेक परमाणुओं के समूह पर से युक्त होता है, उसमें सजीवता, रक्त का संचार आदि आरोपित एक नाम मात्र हैं और इसलिए इन्हें जानने वाला विशेषताएं होती हैं। लेकिन हाथ अपने इस विशिष्ट स्वरूप ज्ञान मिथ्या है। वादिराज मनिराज बौद्धों के इस मत की में अस्तित्व शरीर के अंग के रूप में ही रखता है तथा शरीर आलोचना करते हए कहते हैं कि बौद्ध स्थल वस्त के खंडन से पृथक हो जाने पर उसका इस विशिष्ट स्वरूप से के लिए प्रस्तुत किए गए अनमान में विरल केशों में भ्रामक अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इस प्रकार हाथ, पैर आदि घनाकारता का दृष्टांत देते हैं। केशों में घनाकारता का ज्ञान विभिन्न अंगों के शरीर के एक अंग के रूप में ही एक तभी भ्रामक हो सकता है, जबकि उनकी विरलता का ज्ञान विशिष्ट स्वरूप में अवस्थित होने के कारण इन अंगों के यथार्थ हो तथा उनकी विरलता का ज्ञान तभी यथार्थ हो ज्ञानपूर्वक शरीर ही आंशिक रूप से ज्ञात होता है तथा शरीर सकता है जब विरलता के अधिष्ठान केशों का ज्ञान यथार्थ हो के समस्त अंगों के ज्ञात होने पर ही शरीर संपूर्णतः ज्ञात जो स्वयं स्थूल वस्तु रूप हैं। यदि केश ज्ञान यथार्थ हैं तो कहलाता है। स्थूल वस्तु का खंडन नहीं किया जा सकता। यदि वह मिथ्या क्योंकि एक अवयव अपने विशिष्ट स्वरूप को है तो उसके द्वारा कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता।27 अवयवी के एक अंग के रूप में ही, अर्थात् संपूर्ण अवयवों से :: :::: :: :: स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 60. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy