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________________ संबंधित और प्रभावित होकर ही प्राप्त करता है, इसलिए न सदैव किसी विशेष स्वरूप में अभिव्यक्त होकर ही विद्यमान केवल अवयवों के ज्ञान में वृद्धि के साथ ही साथ अवयवी के होता है तथा वह अनंतावर्ती क्षण में सामान्य रूप से वही ज्ञान में वृद्धि होती जाती है, बल्कि अवयवी के ज्ञान में हो रहते हुए पूर्ववर्ती विशेष स्वरूप से नष्ट होकर उत्तरवर्ती रहा विकास उसके विभिन्न अवयवों के ज्ञान को भी अधिक विशेष स्वरूप को प्राप्त करता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु परिष्कृत और समृद्ध करता है। अवयवी के प्रति अब तक प्रतिसमय उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप है। एक वस्तु का अनेक अर्जित जानकारी अनेक नई जिज्ञासाओं को जन्म देती है, शक्ति-संपन्न, सामान्य और ध्रुव स्वरूप उसकी द्रव्यजिनके समाधान हेतु किए गए प्रयत्नपूर्वक अर्जित नवीन रूपता है तथा इस ध्रुव स्वरूप की समय-विशेष में विद्यमान विशेषताओं का ज्ञान संपूर्ण अवयवी के ज्ञान को अधिक उत्पत्ति-विनाशवान विशिष्ट अभिव्यक्ति उसकी स्पष्टता प्रदान करता है। जैसे शरीर के हाथ, पैर विभिन्न पर्यायरूपता है। अतः प्रत्येक वस्तु सदैव द्रव्यपर्यायात्मक, अवयवों का निर्माण एक निश्चित व्यवस्था के अनुसार ही सामान्य-विशेषात्मक होती है। क्यों होता है, विभिन्न व्यक्तियों के रंग, स्वभाव आदि में . . प्रत्यक्ष, अनुमानादि समस्त प्रमाणों से हमें अतर क्यो पाया जाता है, दुनिया में कोई भी दो व्यक्ति द्रव्यपर्यायात्मक वस्त ही ज्ञात होती है। जैसे प्रत्यक्ष द्वारा पूर्णतया समान क्यों नहीं होते, आदि प्रश्नों के समाधानार्थ हमें कुंडलीयमान सर्प ज्ञात होता है। वही सर्प पुनः पुनः खोजे गए शरीर के अवयव-जींस न केवल शरीर के संबंध में प्रत्यक्ष का विषय बनने पर उत्फण, विफण, प्रसारणादि हमारी जानकारी में वृद्धि करते हैं बल्कि ये शरीर और परस्पर विलक्षण और उत्पत्ति-विनाशवान क्रमवर्ती पर्यायउसके अवयवों के संबंध में हमारे पूर्वार्जित ज्ञान को अधिक रूप से अवस्थित एक अन्वयी व्य-सर्परूप में जात होता स्पष्टता और वैशिष्ट्य भी प्रदान करते हैं। यह ज्ञेय पदार्थ है।30 हम देखते हैं कि जो रूपरसगंधस्पर्शमय आम. प्रारंभ के अवयव-अवयव्यात्मक स्वरूप को सिद्ध करता है। में हरित रंग, खद्रे स्वाद आदि रूप कच्चे आम स्वरूप होता इंद्रिय प्रत्यक्ष द्वारा एक स्थूल वस्तु अवयव- है; कुछ दिन पश्चात् वही आम पककर पीले रंग, मीठे स्वाद अवयव्यात्मक स्वरूप में ही ज्ञात होती है, लेकिन जब हम स्वरूप हो जाता है; और एक-दो दिन पश्चात् वह आम सड़ उसे भाषा से समझना चाहते हैं तो यह अवयव और जाता है, उसका पीला रंग काले रंग में तथा मीठा स्वाद अवयवी को परस्पर अलग करके एक-एक वाक्य में अवयवी , कड़वे स्वाद में रूपांतरित हो जाता है। इस प्रकार अनेक के एक-एक अवयव के पृथक्-पृथक् और क्रमिक वर्णनपूर्वक क्रमवर्ती प्रत्यक्षोंपूर्वक होने वाला एक वस्तु का 'कच्चा ही संभव हो पाता है। भाषा का यह स्वरूप हममें अनेक बार आम', 'पका हुआ आम', 'सड़ा हुआ आम' रूप ज्ञान न यह भ्रम पैदा कर देता है कि एक अवयवी अनेक अवयवों का केवल उस वस्तु की अनेक विलक्षण पर्यायरूपता को सिद्ध समूह मात्र है अथवा यह कि अवयव आदि धर्म स्वतंत्र तथा करता है, बल्कि इन प्रत्यक्षोंपूर्वक होने वाला 'यह वही आम परस्पर निरपेक्ष सत्ताएं हैं तथा अवयवी आदि धर्मी उनसे है' रूप एकत्व प्रत्यभिज्ञान उन पर्यायों की एक अन्वयी भिन्न सत्ता हैं। इसलिए जैन आचार्यों के अनुसार भाषा द्वारा द्रव्यरूपता को भी सिद्ध करता है। ति तथा यथावस्थित स्वरूप में जानने के लिए प्रत्यक्षादि प्रमाणों से उस आम जैसे अनेक आमों के वर्णित विषय को स्याद्वादनय संस्कृत रूप में ग्रहण करना पनः-पनः ज्ञान से हमें उनके परिवर्तनशील-स्थाई, आवश्यक है। सामान्य-विशेषात्मक स्वरूप का ही ज्ञान नहीं होता, बल्कि ज्ञान का विषयभूत पदार्थ युगपत् विद्यमान अनेक इसके द्वारा हम यह भी जानते हैं कि एक वस्तु का अनेक गुणों और अवयवों में व्याप्त एक सत्ता ही नहीं है, बल्कि पर्यायों रूप से परिणमन निश्चित कारणात्मक नियमों के वह अनेक क्रमवर्ती पर्यायों में व्याप्त एक द्रव्य भी है। उसके अनुसार होता है तथा आंतरिक-बाह्य कारणों की भिन्नता के अनेक सहवर्ती गुण और अवयव उसका ऐसा अनिवार्य, अनुसार वस्तु में घटित होने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया का सामान्य और ध्रुव स्वरूप है जिसमें अनेक विशेष रूपों में स्वरूप भिन्न होता है। जैसे अनेक अन्वय व्यतिरेकी परिणमित होने की सामर्थ्य तथा आंतरिक-बाह्य कारणों के दृष्टांतों के प्रत्यक्षपूर्वक हमें यह ज्ञान होता है कि यदि आम सद्भावानुसार सदैव किसी विशेष स्वरूप को प्राप्त करने को घास में रखकर पकाया जाता है तो वह पेड़ पर की प्रकृत्ति विद्यमान है। अपनी इस सामर्थ्य और प्रवृत्ति के स्वाभाविक रूप से पकने की अपेक्षा शीघ्रता से पकता है, कारण वस्तु का अनेक अवयव, गुणात्मक सामान्य स्वरूप यदि उसे रसायनों से पकाया जाए तो यह प्रक्रिया बहुत तीव्र स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष.61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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