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________________ भी है) इन अनेक स्वभाव के एक ज्ञानस्वभावी सत्ता होने पर भी इनकी स्वभावगत अनेकता वास्तविक है तथा इनमें से किसी भी गुण के सद्भाव अभाव में संपूर्ण सत्ता का स्वरूप बदल जाता है। उदाहरण के लिए ज्ञान वीर्यात्मक अर्थात् सक्रियता से युक्त होने पर सदैव उपयोगात्मक अर्थात् सदैव किसी न किसी पदार्थ को जानने-देखने हेतु प्रवृत्तिपूर्वक सविषयक चेतना है, ऐसी स्थिति में वह ज्ञान सामान्य रूप से सदैव वही रहते हुए एक विशेष ज्ञान पर्यायरूप से नष्ट होता हुआ तथा अन्य विशेष ज्ञान पर्याय- रूप से उत्पन्न होता हुआ सदैव उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप या द्रव्य है। प्रवृत्तिपूर्वक अपनी विशेष ज्ञान पर्याय का निर्माण करने के स्वभाव से युक्त होने के कारण वह कर्तृत्व से युक्त है। इस प्रकार ज्ञान के वीर्यात्मक होने पर वह उपयोगमय, परिणामीनित्य, सामान्य विशेषात्मक, कर्ता, सविषयक चेतनामय आत्मा है। लेकिन यदि ज्ञान वीर्यरहित हो तो फिर वह निष्क्रिय होने के कारण अकर्ता, कूटस्थ नित्य, पूर्णतया सामान्यरूप, साक्षीभावमय निर्विषयक चेतना होगा। यदि ऐसी चेतना सार्वभौमिक और आनंदमय हो तो वह अद्वैत वेदांत द्वारा स्वीकृत ब्रह्म और यदि वैयक्तिक और आनंदरहित हो तो सांख्य दर्शन द्वारा स्वीकृत पुरुष होगा। ज्ञानमय तत्त्व के इन अनेक स्वभावमय विशिष्ट स्वरूपों को बौद्धिक कल्पनाजनित शब्द मात्र नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इन्हें वास्तविक स्वीकार करके ही विभिन्न दार्शनिक अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत सत्ता के स्वरूप का निषेध और स्वयं द्वारा मान्य स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। साथ ही इसके विशेष प्रकार के स्वरूप की स्वीकृति चेतना के वर्तमान स्वरूप और उसके चरम लक्ष्य को भी प्रभावित करती है। एक उपयोगात्मक चेतना का आराधक ज्ञानार्जन के प्रति सदैव उत्साही होता है जबकि साक्षीभावरूप चेतना का आराधक उसके प्रति उदासीन हो जाता है। प्रथम का आदर्श सर्वज्ञता तथा द्वितीय का चरम लक्ष्य निर्विषयक चेतना होती है । इस प्रकार एक सत्ता शुद्ध निर्विशेष सत्ता मात्र न होकर विशिष्ट प्रकार की सत्ता है तथा उसके वैशिष्ट्य के नियामक सत्तापेक्षया परस्पर पृथक् अनेक वास्तविक स्वभाव हैं। अकलंकदेव ज्ञेय पदार्थ के पदार्थ के एकानेकात्मक, एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप के कारण ज्ञान के धर्मधर्म्यात्मक सविकल्पक स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि ज्ञान का आकार सदैव वस्तु का सही स्वरूप है, अन्य नहीं, मार्च मई, 2002 Jain Education International रूप सविकल्पक ज्ञानरूप ही होता है। यदि ऐसा न मानकर सत्ता को पूर्णतया एकस्वभावी और निरंश ही स्वीकार किया जाए तथा यह कहा जाए कि समाधि की अवस्था निर्विकल्पक ज्ञानस्वरूप है, इस अवस्था में शुद्ध निर्विशेष रूप सत्ता ज्ञात होती है और यदि यही ज्ञान यथार्थ है तो इस अवस्था को प्राप्त कर चुके बुद्ध, शंकर आदि सभी दार्शनिक तत्त्वदर्शी होने चाहिएं और उनके मध्य विद्यमान सभी विवाद समाप्त हो जाने चाहिएं। साथ ही किसी भी प्रकार की विशेषताओं से रहित स्व-संवेदनात्मक सत्ता के वचनातीत होने के कारण उन्हें मौन धारण कर लेना चाहिए। लेकिन इसके विपरीत ये दोनों ही सत्ता के विशिष्ट स्वरूप को स्वीकार करते हुए एक-दूसरे के मत का खंडन करते हैं। 25 बुद्ध इस स्व-संवेदनात्मक सत्ता के नित्यत्व, सर्वव्यापकत्व आदि के खंडनपूर्वक उसके वैयक्तिक, क्षणिक और विशिष्ट स्वरूप का तथा शंकर उसकी अनित्यता आदि के खंडनपूर्वक उसकी नित्यता आदि विशेषताओं से परिपूर्ण स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। उनका यह कार्य यह सिद्ध करता है कि समाधि की अवस्था शुद्ध निर्विशेष पूर्णतया एकस्वभावी स्व-संवेदनरूप नहीं है, बल्कि इस अवस्था में विशिष्ट स्वरूप संपन्न स्वसंवेदन का बोध हुआ है जो समाधि की अवस्था को धर्मधर्म्यात्मक सविकल्पक ज्ञानरूप सिद्ध करता है । वादिराज मुनिराज कहते हैं कि वस्तुतः आत्मस्वरूप की भावनामय सविकल्पक ज्ञान के चरम प्रकर्षरूप समाधि की अवस्था सविकल्पक ज्ञानरूप ही होती है, निर्विकल्पक नहीं हो सकती। " एक मुमुक्षु व्यक्ति श्रवण, मनन और निविध्यासन की प्रक्रिया द्वारा समाधि की अवस्था को प्राप्त करता है। गुरु के वचनों द्वारा आत्मस्वरूप की जानकारी प्राप्त कर व्यक्ति उसका निरंतर मनन करता है। बार-बार के मननपूर्वक व्यक्ति की तदनुरूप अनुभूति निरंतर अधिक गहन होती जाती है, जिसके परिणामस्वरूप अंत में इसके चरम प्रकर्ष रूप समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। एक बौद्ध निरंतर अपने क्षणिक, वैयक्तिक, पूर्णतया विशिष्ट, विज्ञानमय एकानेकात्मक भेदाभेदात्मक स्वरूप का मनन करता है। इस स्वरूप की बार बार भावना से उसकी स्वयं के अन्य सबसे पूर्णतया पृथक प्रतिक्षण परिवर्तनशील चैतन्य स्वरूप की अनुभूति निरंतर अधिक गहरी होती जाती है और अंत में इस स्वरूप की शब्द-रहित तथा गहन अनुभूति रूप समाधि की अवस्था प्राप्त होती है इसी प्रकार एक वेदांती गुरूपदेशपूर्वक स्वयं के ब्रह्मस्वरूप को स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only अनेकांत विशेष • 59 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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