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________________ जीवादि धर्मी की अनंत धर्मात्मकता को ही सिद्ध करता है । लेकिन यही प्रमेयत्व प्रमाण ज्ञान के विषय के रूप में जीवादि धर्मी की ही नहीं स्वयं की अनंतधर्मात्मकता को भी सिद्ध करता है। 19 बौद्ध और अद्वैत वेदांत मत : बौद्ध उपर्युक्त विवेचन को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि एक धर्मी में अनेक धर्मरूप भेद मात्र शाब्दिक और बुद्धिजनित होने के कारण अयथार्थ हैं। वस्तु पूर्णतया एकस्वभावी ही होती है तथा वह प्रत्यक्ष द्वारा संपूर्णतः ही ज्ञात होती है। उस प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात वस्तु के प्रति किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न हो जाने पर उसमें भेद का आरोप करके उसका सत्, अनित्य, कृतक आदि अनेक रूपों में निश्चय किया जाता है। इस निश्चय का उद्देश्य वस्तु की वास्तविक अनेक स्वभावता का प्रतिपादन न होकर उसे विजातीय वस्तुओं से पृथक् करना है। शब्द विशेषण पदार्थ को अशब्द से, अनित्य नित्य से और कृतक उसे अकृतक से पृथक् करता है। 20 इस प्रकार सविकल्प ज्ञान वस्तु के प्रति मात्र निषेधात्मक बुद्धि 'यह वह नहीं है' को उत्पन्न कर उसके प्रति भ्रम को तो समाप्त कर सकता है लेकिन उसमें वस्तु के स्वरूप का बोध कराने की सामर्थ्य नहीं है । वस्तु के स्वरूप का यथार्थबोध तो इंद्रियार्थ सन्निकर्ष के प्रथम क्षण में और योगियों को समाधि की अवस्था में होने वाले निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ही होता है । बौद्धों के समान ही अद्वैत वेदांती भी कहते हैं कि सत्ता पूर्णतया अखंड और एकस्वभावी ही होती है । सविकल्पक ज्ञान उस अखंड सत्ता में धर्मधर्मी भेद का आरोप करके उसे अनेक रूपों में जानता है तथा उसमें इन भेदों से परे सत्ता के अखंड स्वरूप को ग्रहण करने की सामर्थ्य नहीं है। इसलिए यह ज्ञान मिथ्या है। इसका महत्त्व इतना ही है कि इसमें सत्ता के प्रति स्वरूपबोध की सामर्थ्य का अभाव होने पर भी उसके प्रति अस्वरूप की निवृत्ति की सामर्थ्य है। वह वस्तु के प्रति 'नेति', 'नेति' अर्थात् वस्तु यह नहीं है, यह नहीं है रूप से उसके प्रति अज्ञान को समाप्त कर देता है। इसके पश्चात् ही सत्ता के यथार्थ स्वरूप की साक्षात्कारात्मक निर्विकल्पक ज्ञान स्वरूप समाधि की अवस्था की प्राप्ति संभव है । 21 इस प्रकार बौद्ध और अद्वैत वेदांत—दोनों के अनुसार ही विशेषण विशेष्य भाव से युक्त सविकल्पक ज्ञान वस्तु के प्रति अज्ञान की निवृत्ति रूप निषेधात्मक कार्य ही करता है तथा उसमें वस्तु के स्वरूपबोध की सामर्थ्य नहीं है। वस्तु के अखंड स्वरूप का 58 • अनेकांत विशेष Jain Education International ज्ञान तो समाधि की अवस्था में होने वाले निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ही संभव है। जैन मत : जैन वार्शनिक भी बौद्ध और अद्वैत वेदांत के इस मत से सहमत हैं कि सत्ता पूर्णतया एकस्वभावी ही होती है। आत्मा संपूर्णतः एकस्वभावी सत्ता ज्ञानस्वभावी सत्ता है तथा वह ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ध्यान का विषय स्वयं का ऐसा शुद्ध ज्ञायक स्वरूप ही होता है। कुंदकुंदाचार्य जीव के सर्वभेदरहित शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं, 'जो यह ज्ञायक भाव है वह न तो प्रमत्त है न अप्रमत्त है, बल्कि वह शुद्ध ज्ञायक भाव स्वरूप ही है । व्यवहार नय से ज्ञानी के चारित्र हैं, दर्शन हैं, ज्ञान हैं, लेकिन निश्चय नय से ज्ञानी के न तो चारित्र हैं, न दर्शन हैं, न ज्ञान हैं बल्कि वह शुद्ध ज्ञायक भावरूप ही हैं।" ये पद यह प्रतिपादित करते हैं कि चैतन्य आत्मा पूर्णतया एकस्वभावी ज्ञानस्वभावी तत्त्व हैं, लेकिन यह ज्ञानस्वभावी तत्त्व शुद्ध निर्विशेष एकस्वभावी तत्त्व न होकर विशिष्ट प्रकार की सत्ता है तथा उसके विशिष्ट स्वरूप के नियामक उसके अनंत धर्म हैं जो ज्ञान और भाषा में अलग किए जा सकने योग्य होने पर भी तत्त्वतः अपृथक हैं। इसलिए उपयुक्त पदों के टीकाकार अमृतचंद्र कहते हैं कि उस ज्ञायक भाव का अनुभव करने वाले प्रत्यगात्मा अनंत धर्मात्मक तत्त्व को देखते हैं। 23 निश्चय नय से जिसने इस अनंतधर्मात्मक एकधर्मी को नहीं जाना, ऐसे शिष्यों को भाषा द्वारा धर्म को धर्मी से पृथक करते हुए व्यवहार से उपदेश दिया जाता है कि ज्ञानी के दर्शन हैं, ज्ञान हैं, चारित्र हैं, लेकिन परमार्थ से देखा जाए तो एक द्रव्य द्वारा पीए गए अनंत धर्म रूपों के किंचित मिले हुए अभेद स्वभाव वस्तु को अनुभव करने वाले पंडित पुरुषों की दृष्टि में दर्शन भी नहीं, ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नहीं शुद्ध एक ज्ञायक भाव ही है। 24 आत्मा एकस्वभावी ज्ञानस्वभावी तत्त्व ही है, लेकिन उसकी यह एकस्वभावता उसकी सत्त्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व, दर्शन, वीर्यादि वास्तविक अनेक स्वभावता के सद्भाव में ही संभव है। ये सभी स्वभाव ज्ञान के विशेषण होने तथा संज्ञा, लक्षण, प्रयोजनादि की अपेक्षा परस्पर भिन्न-भिन्न होने पर भी सत्तापेक्षया तादात्म्य संबंध से युक्त होने के कारण एकज्ञान ही हैं (इसी प्रकार आत्मा संपूर्णतः एकस्वभावी दर्शनस्वभावी या वीर्यस्वभावी आदि स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only मार्च मई, 2002 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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