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________________ प्रकार एक धर्म को अनंतधर्मात्मक स्वीकार करने पर प्रमेयत्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि समस्त गुणों का विशिष्ट अनवस्था दोष आता है। स्वरूप उनका आश्रयभूत संपूर्ण द्रव्य है। एक द्रव्य के समस्त गुणों के परस्पर एक-दूसरे का स्वरूप होते हुए एक द्रव्यरूपता को प्राप्त होने तथा संपूर्ण द्रव्य के एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूपमय होने के कारण एक द्रव्य के प्रत्येक गुण का विशेषण उस द्रव्य के अन्य समस्त गुण होते हैं। इसलिए एक द्रव्य के कुछ गुणों का ज्ञान उस द्रव्य का ही नहीं उसके ज्ञात गुणों का भी आंशिक ज्ञान है। जब द्रव्य का कोई नवीन गुण ज्ञात होता है तो वह द्रव्य के ज्ञान में ही वृद्धि नहीं करता, बल्कि द्रव्य के पूर्ण ज्ञात गुणों का भी विशेषण होता हुआ, उनके ज्ञान को अधिक समृद्ध और परिष्कृत करता हुआ भेदाभेदात्मक रूप से ज्ञात होता है। 3 उपर्युक्त आपत्तियों का उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानंद कहते हैं कि इस अनुमान में व्यभिचार दोष नहीं है, क्योंकि कोई भी धर्म सदैव धर्म ही नहीं रहता। सत्त्वादि कोई भी धर्म अपने धर्मी की अपेक्षा ही धर्म होता है तथा अपने अन्य धर्मों की अपेक्षा वह स्वयं अनंत धर्मात्मक धर्मी भी होता है। ऐसा मानने पर अनवस्था दोष भी नहीं आता, क्योंकि एक वस्तु के विभिन्न धर्मों में धर्म-धर्मी भाव अभव्य के संसार के समान अथवा एक घूमते हुए वलय के पूर्वापर भाग के समान अनादि, अनंत तथा अनवस्थित हैं।'' जिस प्रकार एक अभव्य के संसार का न तो आदि है न अंत अथवा जिस प्रकार एक घूमते हुए वलय का एक भाग सामने आने पर पूर्व भाग, तथा वही भाग पीछे चले जाने पर अपर भाग हो जाता है उसी प्रकार एक वस्तु के समस्त धर्मों में परस्पर धर्म धर्मी भाव अनवस्थित और अनादि अनंत है। उसकी किसी भी विशेषता को विशेष्य बनाए जाने पर अन्य सभी विशेषताएं उसका विशेषण हो जाती हैं। वस्तुतः सत्त्व, द्रव्यत्व आदि सत्, द्रव्य आदि व्यक्तियों से भिन्न पदार्थ न होकर उनका सामान्य रूप से शाश्वत और अनिवार्य स्वरूप होने के कारण द्रव्य मात्र के सामान्य गुण हैं ये गुण सभी द्रव्यों में पूर्णरूपेण समान न होकर अपने आश्रय के भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरूप से युक्त होते हैं। उदाहरण के लिए आत्मा का अस्तित्व गुण उसे जड़ व चेतन सभी द्रव्यों में समान रूप से विद्यमान सत् स्वरूपता प्रदान न करके विशिष्ट प्रकार की सत् स्वरूपता प्रदान करता है। वह उसे द्रव्यत्व, वस्तुत्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्यादि स्वरूप में अस्तित्ववान बनाता है। यदि इनमें से एक भी गुण का अभाव हो तो आत्मा का सद्भाव भी नहीं रहेगा। जैसे, यदि आत्मा में वीर्य गुण नहीं हो तो उसमें सक्रियता और इसलिए जानने-देखने हेतु प्रयत्नपूर्वक व्यापाररूप उपयोगात्मकता का अभाव हो जाएगा। ऐसी स्थिति में जब ज्ञान, दर्शन ही नहीं रहेंगे तो परिणामी नित्यता रूप द्रव्यत्व, सामान्यविशेषात्मकता रूप वस्तुत्व किसका होगा ? इस प्रकार आत्मा का अस्तित्व गुण अन्य द्रव्यों से भिन्न एक विशिष्ट प्रकार का अस्तित्व है। उसके अस्तित्व गुण का विशिष्ट स्वरूप संपूर्ण आत्मा अर्थात् आत्मा के समस्त गुण हैं। इसी प्रकार द्रव्यत्व, वस्तुत्व, मार्च - मई, 2002 Jain Education International हमें एक समय में प्रत्यक्ष द्वारा एक द्रव्य के जितने भी गुण ज्ञात होते हैं वे परस्पर गुणगुणी - आत्मक स्वरूप में ही ज्ञात होते हैं, लेकिन भाषा के प्रयोगपूर्वक होने वाले ज्ञान में गुण को गुणी से पृथक करके जाना जाता है। यह ज्ञान स्याद्वाद नय-संस्कृत रूप से होने पर ही यथार्थ होता है । स्याद्वाद प्रमाणात्मक" या सकलादेशी" होता है। उसके द्वारा सामान्य रूप से वस्तु के अनेकांतात्मक स्वरूप का ज्ञान होता है । वस्तु का स्याद्वाद द्वारा प्रविभक्त या विशेषित (स्याद्वाद द्वारा सामान्य रूप से वस्तु के एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप के निश्चयपूर्वक होने वाला) वस्तु के एक धर्म का ज्ञान नय कहलाता है। 17 अथवा प्रमाण द्वारा प्रकाशित वस्तु के विशेष अंश का प्ररूपक ज्ञाता का अभिप्राय नय है।" वस्तु की एक विशेषता का अपना निश्चित विशिष्ट स्वरूप होता है, लेकिन उस रूप में उसका अस्तित्व संपूर्ण वस्तु पर अर्थात् वस्तु की अन्य सभी विशेषताओं पर आश्रित होता है। वह अपने आप में स्वतंत्र तत्त्व न होकर अनेक धर्मात्मक एकधर्मी में रहते हुए तथा उसके विशिष्ट स्वरूप के अनुसार विशिष्ट स्वरूप प्राप्त करती है। उसे जानने वाले नय ज्ञान की प्रवृत्ति प्रमाण ज्ञान द्वारा सामान्य रूप से संपूर्ण वस्तु को जानने के उपरांत ही होती है। इसलिए 'जो भी ज्ञेय है वह अनंतधर्मात्मक है', इस व्याप्ति में व्यभिचार दोष का निराकरण करते हुए अंत में आचार्य विद्यानंद कहते हैं कि जीवादि धर्मी से अलग किया गया प्रमेयत्व हेतु नय ज्ञान का विषय है और नय ज्ञान के प्रमाणांश होने के कारण इस ज्ञान के विषय के रूप में वह स्वयं प्रमेय या अप्रमेय न होकर प्रमेयांश है। अतः नय ज्ञान के रूप में वह स्वयं की अनंतधर्मात्मकता को सिद्ध न करके स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only अनेकांत विशेष • 57 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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