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वस्तु के ज्ञान में वृद्धि करती हैं, बल्कि वस्तु की पूर्व ज्ञात उपर्युक्त दोनों वाक्य सत्त्व और द्रव्यत्व में परस्पर विशेष्यविशेषताओं के ज्ञान को भी अधिक विशिष्ट और परिष्कृत विशेषण भाव को सिद्ध करते हुए 'सत्तात्मक द्रव्य' या करते हुए उसके धर्मधात्मक स्वरूप को सिद्ध करती हैं। 'द्रव्यत्वमय सत्ता' रूप विशिष्ट बुद्धि को उत्पन्न करते हैं जो प्राचीन काल में हुआ स्पर्श चिकित्सा, वर्ण रंग चिकित्सा, सत्त्व और द्रव्यत्व धर्मों के पारस्परिक तादात्म्य संबंधपूर्वक गंध चिकित्सा आदि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों का उनकी एक धर्मीरूपता का परिचायक है। इनमें एकता होने विकास तथा वर्तमान समय में पुद्गल के क्षेत्र में दृष्टिगोचर पर भी अनेकता विद्यमान है जिसके कारण सत्त्व के ज्ञात हो रहा ज्ञान का संपूर्ण विकास ज्ञान की सक्रिय और होने पर भी द्रव्यत्व अज्ञात रहता है तथा उसे जानने के लिए अन्वेषणात्मक प्रक्रिया का परिणाम है और यह ज्ञेय पदार्थ अन्य ज्ञान की सहायता लेनी पड़ती है। द्रव्यत्वरूपता भी के एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप के कारण ही संभव सत्ता का पूर्ण स्वरूप नहीं होने के कारण उसके प्रति पुनः हुआ है।
जिज्ञासा होती है कि यह द्रव्यत्वमयसत्ता सामान्य रूप है, जैन आचार्यों का धर्मधर्मी-आत्मक वस्त को ज्ञान का विशेष रूप है या सामान्य-विशेषात्मक। इसके उत्तर में शब्द विषय स्वीकार करने का क्या आशय है-इसे हम शब्द प्रमाण द्वारा उसका सामान्य-विशेषात्मक स्वरूप या वस्तुत्व प्रमाण के माध्यम से समझने का प्रयास करें। भाषा द्वारा गुण ज्ञात होता है। यह द्रव्यत्व-वस्तुत्वमय सत्ता प्रमेय है या एक वस्त क्रमिक रूप से एक-एक वाक्य में उसकी एक-एक नहीं, उसके परिमाण में न्यूनाधिकता संभव है या नहीं जैसे विशेषता के ज्ञानपूर्वक ज्ञात होती है। वस्त की एक विशेषता प्रश्नों के उत्तर में सत्ता के प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व आदि गुण नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा अन्य विशेषताओं से ज्ञात होते हैं। मानवीय ज्ञान की यह सक्रिय और भिन्न और इस अपेक्षा से अपने-आप में परिपूर्ण होते हए अन्वेषणात्मक, दूसरे शब्दों में उपयोगात्मक प्रक्रिया अंतहीन सत्तापेक्षया अपने-आप में अपूर्ण होती है। इस अपेक्षा से है। जैसे-जैसे मानव के ज्ञान में वृद्धि होती जाती है, उसकी उसका पूर्ण स्वरूप उसका आश्रयभूत संपूर्ण द्रव्य अर्थात् द्रव्य के अन्य समस्त गुण हैं। गुण और गुणी में विद्यमान
अनेक धर्मात्मकता को बल्कि उसकी अनंतधर्मात्मकता को
सिद्ध करती हैं। इसलिए आचार्य विद्यानंद कहते हैं, 'जीवादि द्रव्य के एक गुण के प्रति अनेक जिज्ञासाएं उत्पन्न हो जाती धर्मी अनंत धर्मात्मक हैं अन्यथा उनमें प्रमेयत्व का होना हैं। इन जिज्ञासाओं की शांति हेतु किए गए प्रयत्न से वस्तु असभव है।" के अनेक नवीन गुणों का ज्ञान होता है, जो वस्तु के ज्ञान में उपर्युक्त अनुमान 'जीवादि धर्मी अनंत धर्मात्मक हैं, मात्र वृद्धि ही नहीं करता बल्कि वस्तु की पूर्वज्ञात क्योंकि वे प्रमेय हैं' में जीवादि धर्मी पक्ष हैं। उनके एक धर्म विशेषताओं की समझ को भी और अधिक वैशिष्ट्य और 'प्रमेयत्व' को हेतु बनाकर उनकी अनंतधर्मात्मकता को सिद्ध स्पष्टता प्रदान करता हुआ परिष्कृत करता है। आचार्य किया जा रहा है। प्रश्न उठता है कि वह प्रमेयत्व हेतु स्वयं उमास्वामी कहते हैं 'सत् होना द्रव्य का लक्षण है। 10 'सत्' प्रमेय (ज्ञेय) है अथवा नहीं? यदि यह स्वयं अज्ञात हो तो का अर्थ है 'है', 'सद्भाव', अस्तित्वरूपता तथा इस धर्म का उसके द्वारा कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता। यदि यह स्वयं प्रयोजन है धर्मी को सत् स्वरूपता प्रदान करना, उसके प्रमेय है तो यह स्वयं अनंतधर्मात्मक है, अथवा नहीं है। यदि सद्भाव या होने का ज्ञान कराना। इसलिए उपर्युक्त वाक्य नहीं है तो यह हेतु व्यभिचार दोष से ग्रस्त होगा, क्योंकि 'सत् होना द्रव्य का लक्षण है' से यह ज्ञान होता है कि 'द्रव्य प्रमेयत्व हेतु स्वयं एक स्वभावी होने पर भी ज्ञात हो रहा है है' या जो भी है उसे द्रव्य कहा जाता है। इस लक्षण और और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जो भी प्रमेय है प्रयोजन की अपेक्षा अस्तित्व गुण के अपने-आप में परिपूर्ण वह अनंत धर्मात्मक है। यदि प्रमेयत्व हेतु की होने पर भी सत्तापेक्षया वह अपने-आप में अपूर्ण है और अनंतधर्मात्मकता स्वीकार की जाए तो अभी तक किसी भी इसलिए इसके प्रति यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि सत् वस्तु की अनंत धर्मात्मकता सिद्ध नहीं हो पाने के कारण यह होने का अर्थ क्या है? जो है वह मात्र एक क्षणस्थाई है, साध्यसम हेत्वाभास हो जाएगा तथा इसके द्वारा कुछ भी शाश्वत है या परिणामी नित्य? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य सिद्ध नहीं हो पाएगा। फिर एक धर्म को भी अनंतधर्मात्मक कहते हैं, 'जो सत् है वह उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है।'' स्वीकार करने पर उन धर्मों के भी अनंतधर्म और उन धर्मों उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तता को द्रव्यत्व गुण कहा जाता है। में भी प्रत्येक धर्म के अनंतधर्म....स्वीकार करने पड़ेंगे। इस
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
56. अनेकांत विशेष
मार्च-मई, 2002
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