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________________ सकता, वह तो इनसे परे है। कठोपनिषद् में उसे बुद्धि एवं तर्क से परे माना गया है। मुंडकोपनिषद् में उसे मेधा और श्रुति से अगम्य कहकर इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है। आचारांग में भी उसे शब्द, वाणी और तर्क से अगोचर कहा गया है । इसी प्रकार के भाव बौद्ध विचारक चंद्रकीर्ति ने प्रकट किए हैं। पाश्चात्य विचारक लॉक, कांट, ब्रेडले और बर्गसां आदि ने भी सत्य को तर्क या विचार की कोटि से परे माना है। वस्तुतः हमारी ऐंद्रिय क्षमता, तर्कबुद्धि, विचार क्षमता, वाणी और भाषा इतनी अपूर्ण हैं कि वे संपूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं हैं। मानव बुद्धि संपूर्ण सत्य को नहीं, केवल उसके एकांश को ग्रहण कर सकती है। मात्र इतना ही नहीं, वस्तुतत्त्व में परस्पर विरोधी गुण भी एक साथ रहते हैं और ऐसी स्थिति में दो भिन्न दृष्टियों में परस्पर विरोधी तथ्य भी एक साथ सत्य हो सकते हैं । समयसार में इसी का उल्लेख हुआ है कि जो वस्तु तत्त्वस्वरूप है, वही अतत्त्वस्वरूप भी है। जो वस्तु एक है वही अनेक भी है। जो वस्तु सत् है वही असत् भी है तथा जो वस्तु नित्य है, वह अनित्य भी है।' इस कारण एक ही वस्तु के वस्तुतत्त्व के कारणभूत परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन अनेकांत है देवागम अष्टशती कारिका में इसी को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है— वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है नित्य ही है अथवा अनित्य ही है—इस प्रकार सर्वथा एकांत के निराकरण करने का नाम अनेकांत है। अनेकांत का एक सूत्र है सह प्रतिपक्ष केवल युगल ही पर्याप्त नहीं है, विरोधी युगल भी होना चाहिए। प्रकृति की समूची व्यवस्था में विरोधी युगलों का अस्तित्व है। हमारा जीवन विरोधी युगलों के आधार पर चलता है। शरीर की रचना, प्रकृति की रचना, परमाणु की या विद्युत की रचना रचना - सबमें विरोधी तत्त्व काम कर रहे हैं। अनेकांत का मूल आधार है—विरोधी के अस्तित्व की स्वीकृति, प्रतिपक्ष 106 • अनेकांत विशेष Jain Education International की स्वीकृति अनेकांत दृष्टि का मुख्य कार्य एकांत या आग्रह बुद्धि का निरसन कर अनाग्रही दृष्टि को प्रकट करना है अनेकांत दर्शन यह बतलाता है कि वस्तु में सामान्यतः । विभिन्न अपेक्षाओं से अनंत धर्म रहते हैं। किंतु प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में रहता है—यह प्रतिपादन करना ही अनेकांत दर्शन का विशेष प्रयोजन है। यथार्थ में अनेकांत पूर्णदर्शी है और एकांत अपूर्णवर्शी है। एकांत मिथ्या अभिनिवेश के कारण एक अंश को ही पूर्ण सत्य मान लेना विवाद की जड़ है। इसी कारण एक मत का दूसरे मत से विरोध हो जाता है। किंतु अनेकांत इस विरोध का परिहार कर उनका समन्वय करता है। एकांत दृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा ही है और अनेकांत वृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा 'भी' है। यथार्थ में सारे संघर्ष या विवाद 'ही' के आग्रह से उत्पन्न होते हैं। विवाद वस्तु में नहीं अपितु देखने वाले की दृष्टि में है। अनेकांत का दार्शनिक प्रभाव भारत की कई दार्शनिक परंपराओं ने यद्यपि अनेकांतवाद का निरसन किया है, तथापि इसके उद्देश्य एवं तर्कपूर्ण यथार्थ के आधार का सर्वथा निषेध नहीं किया है। ईशावास्य उपनिषद में आत्मा को एक साथ गतिशील तथा अगतिशील, निकट एवं दूरस्थ तथा आंतरिक एवं नाम बाह्य तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य ने अनेकांतवाद के एक ही साथ विरोधी सत्य के अस्तित्व पर यद्यपि प्रश्नवाचक चिह्न प्रस्तुत किया है, तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि अनेकांत की तार्किकता के विरोध में उन्होंने अनेकांतवादी दृष्टिकोण को ही अपनाया है। बाह्य का वर्णन 'परा' एवं 'अपरा' के रूप में तथा सत्य के विश्लेषण में पारमार्थिक, व्यावहारिक एवं प्रातिभासिक स्वरूप को स्वीकार करना अनेकांत की भावना को ही शंकराचार्य का सृष्टि सिद्धांत उसकी शुद्धता एवं अशुद्धता, शुभत्व एवं प्रभुत्व वस्तुतः अनेकांत वैचारिक अहिंसा को पुष्ट आधार प्रस्तुत कराता है। जिस क्षण से मनुष्य अपने विरोधी को उसकी दृष्टि एवं विचारों से जानने का प्रयास करता है, उसी क्षण से उसमें सहिष्णुता की भावना का विकास होने लगता है जो अहिंसा के व्यवहार हेतु प्रथम आधारभूत आवश्यकता है। संसार के समस्त हिंसक क्रियाकलापों के स्रोत को विभिन्न सिद्धांतों एवं विश्वासों के युद्ध में पाया जा सकता है। अनेकांत मनुष्य की चेतना परिष्कृत कर तथा मनुष्य के चिंतन को लचीला बनाकर हिंसक क्रियाकलापों को रोकने की सामर्थ्य रखता है। व्यक्त करता है। अनेक इकाइयों में स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only मार्च - मई, 2002 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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