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________________ को स्वीकार कर अनेकांतवाद की पुष्टि करता है। इसी विज्ञान और दार्शनिक- दोनों ही दृष्टियों से सामान्य प्रकार बौद्ध परंपरा का विभज्यवाद एवं मध्यमवर्ग भी मानववाद निरपेक्ष पूर्ण सत्य को जानने में असमर्थ है। अनेकांत सिद्धांत की स्वीकृति प्रतीत होते हैं। अनेकांत विचार दृष्टि हमें यही बताती है कि परस्पर पाश्चात्य दार्शनिक परंपराओं पर भी दृष्टिपात करने विरोधी प्रतीत होने वाले दो सापेक्षिक सत्य अपेक्षा भेद से से ऐसा प्रतीत होता है कि अनेकांत दर्शन के समान सत्य हो सकते हैं। भगवान महावीर ने जो सत्य 2600 विचारों को अन्य संदर्भो, अर्थों एवं भाषाओं में स्वीकार वर्ष पूर्व ज्ञान के द्वारा जान लिया था, आइन्स्टीन ने वही किया गया है। ग्रीक दार्शनिक परंपराओं ने नित्यता एवं सत्य 1905 में प्रमाणित कर दिया। सापेक्षवाद के सिद्धांत अनित्यता के रहस्य को परिभाषित करने के प्रयास में ने आधुनिक वैज्ञानिक जगत को तार्किकता के आधार पर स्वीकार किया है कि अंतिम सत्य के वास्तविक स्वरूप को सत्य के दर्शन का मार्ग प्रशस्त किया। वास्तव में जैन दृष्टिपात या इंद्रियगत आधार पर नहीं जाना जा सकता। दर्शन में प्रतिपादित अनेकांत तत्त्व एवं दर्शन मीमांसा की प्लेटो के विचारों में भी जब हम किसी वस्तु-तथ्य का वैज्ञानिक अनुसंधानों एवं निष्कर्षों ने समय-समय पर पुष्टि विरोध कर रहे होते हैं तो वह वस्तु के अस्तित्व का निषेध की है। अनेकांत दर्शन से अनभिज्ञ होते हुए भी लेनिन ने नहीं, अपितु वस्तु के अस्तित्व के अन्य पक्ष के विचार को मनुष्य एवं विज्ञान के निरंतर विकास को संपूर्ण सत्य प्रकट कर रहे होते हैं। आधुनिक दार्शनिक परंपरा में हेगल प्राप्ति का प्रयत्न ही माना था। यदि मार्क्स द्वारा ने विरोधी युगल के अस्तित्व को ही जीवन एवं गति का प्रतिपादित सामाजिक एवं आर्थिक सिद्धांतों के अनुप्रयोग आधार माना है तथा यह भी स्वीकार किया है कि विरोधी के संदर्भ में लेनिन मनुष्य की सीमा को स्वीकारते तो युगल का सह-अस्तित्व का सिद्धांत ही जीवन को निश्चित रूप से समाजवाद के सिद्धांत का भाग्य कुछ और वास्तविक एवं प्राकृतिक रूप में निर्देशित करता है। ब्रेडले ही होता और शायद मार्क्स के दर्शन के प्रयोग को के अनुसार हर वस्तु अन्य की तुलना में अपेक्षा से असफलता का मुंह नहीं देखना पड़ता। आवश्यक भी है तथा अनावश्यक भी। हर असत्य के अंश बोलन का में सत्यांश का भी अंश विद्यमान रहता है। जोआश्मि ने अनेकांत दर्शन विचारों की शुद्धि करता है। वह मानव किसी भी निर्णय को पूर्णतः सत्य न मानते हुए इसी , मस्तिष्क से दूषित विचारों को दूर कर शुद्ध एवं सत्य विचार सिद्धांत का समर्थन किया है। इसी प्रकार का चिंतन के लिए मनुष्य का आह्वान करता है। वह कहता है कि वस्तु प्रो.पेरी, विलियम जेम्स, जॉन कॉर्ड, जोसेफ, एडमंड होम्स विराट है, अनंत धर्मात्मक है। अपेक्षा भेद से वस्तु में अनेक आदि ने भी प्रकट किया है। विरोधी धर्म रहते हैं। उन अनेक धर्मों में से प्रत्येक धर्म आधुनिक विज्ञान और अनेकांत सापेक्ष है। वे सब एक ही वस्तु में बिना किसी वैरभाव के अनेकांत का अर्थ है-संभावनाओं को स्वीकार रहते हैं। विरोधी होते हुए भी वे विरोध का अवसर नहीं आने करना। आज के वैज्ञानिकों ने अनेकांत का अर्थ संभावना देते। किया है तथा अपने आविष्कारों एवं अनुसंधान के माध्यम अमेरिका के प्रसिद्ध इतिहासकार स्टीफन हे ने से इसकी पुष्टि की है। विज्ञान ने इस तथ्य को भली महात्मा गांधी को उद्धृत करते हुए कहा है कि, 'मैं प्रायः प्रकार सिद्ध कर दिया है कि जिस पदार्थ को हम स्थित, अपने मत के कार्यों को अपनी दृष्टि से उचित मानता हूं, नित्य एवं ठोस समझते हैं वह पदार्थ बड़े वेग से गतिशील जबकि मेरे विरोधियों की दृष्टि से मेरे कार्य एवं मत अनुचित है न केवल गतिशील है, वरन् परिवर्तनशील भी है। होते हैं।' गांधीजी ने स्वीकारा था कि वे अनंत धर्मात्मक के आज का प्रबुद्ध वैज्ञानिक भी ऐसा दावा नहीं करता है कि इस सिद्धांत से अत्यधिक प्रभावित हैं। उन्होंने कहा उसने सृष्टि का रहस्य और उसके वस्तुतत्त्व का पूर्ण ज्ञान था—'यह एक ऐसा सिद्धांत है जिसने मुझे एक मुस्लिम को प्राप्त कर लिया है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन उसकी दृष्टि से तथा एक ईसाई को उसकी दृष्टि से समझने ने कहा था कि, 'हम तो केवल सापेक्षिक सत्यों को जान की विवेक दृष्टि दी है। जैन मत के आधार पर मैंने ईश्वर के सकते हैं, पूर्ण या निरपेक्ष सत्य को कोई पूर्ण द्रष्टा ही अकर्ता, रामानुजाचार्य के आधार पर ईश्वर के कर्ता रूप को जान सकेगा।' इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं पाई।' वास्तव में हम स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | अनेकांत विशेष.107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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