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________________ अनेकांठ के अनुप्रयोग डॉ. अनिल धर भारत की कई दार्शनिक परंपराओं ने यधपि अनेकांतवाद का निरसन किया है, तथापि इसके उद्देश्य एवं तर्कपूर्ण यथार्थ के आधार का सर्वथा निषेध नहीं किया है। ईसोबास्य उपनिषद् में आत्मा को एक साथ मतिशील तथा अगतिशील, निकट एवं दूरस्थ तथा आंतरिक एवं नाम बाब तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य ने अनेकांतवाद के एक ही साथ विरोधी सत्य के अस्तित्व पर यद्यपि प्रश्नवाचक चिह्न प्रस्तुत किया है, तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि अनेकांत की तार्किकता के विरोध में उन्होंने अनेकांतवादी दृष्टिकोण को ही अपनाया है। बाहा का वर्णन 'प' एवं 'अप' के रूप में तथा सत्य के विश्लेषण में पारमार्थिक, व्यावहारिक एवं प्रातिभासिक स्वरूप को स्वीकार करना अनेकांत की भावना को ही व्यक्त करता है। RANTARomamali अनुष्य जाति के उत्थान हेतु विभिन्न धर्म एवं बुद्ध ने आग्रह एवं मतांधता से ऊपर उठने के लिए विवाद 'दार्शनिक परंपराएं अनादिकाल से ही विद्यमान परांग्मुखता को अपनाया, किंतु उससे मानवीय जिज्ञासा का रही हैं। काल के विकास के साथ-साथ विभिन्न धर्म एवं सम्यक् समाधान नहीं हो पाता था जबकि उस युग का दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ। धर्म जहां नीति एवं मूल्यों के जनमानस एक विधायक हल की अपेक्षा कर रहा था। संरक्षण हेतु मानव मस्तिष्क को उद्दीप्त करता है वहीं दार्शनिक विचारों की इस संकुलता में वह सत्य को देखना दार्शनिक परंपराएं भेद एवं तर्क के द्वारा मनुष्य को चाहता था। वह जानना चाहता था कि इन विविध मतवादों विवेकवान बनाती हैं। भगवान महावीर के पूर्व भारत भूमि में सत्य कहां और किस रूप में उपस्थित है? क्योंकि उसके पर वैचारिक संघर्ष एवं दार्शनिक विवाद अपनी चरम सीमा सम्मुख प्रत्येक मतवाद एक-दूसरे के खंडन में ही अपनी पर था। जैनागमों के अनसार उस समय 363 और विद्वत्ता की इतिश्री मान रहा था। ऐसी परिस्थिति में भगवान बौद्धागमों के अनुसार 63 दार्शनिक मत प्रचलित थे। जैन महावीर विरोध समन्वय की एक विधायक दृष्टि लेकर परंपरा में इन 363 दार्शनिक संप्रदायों को चार वर्गों में । आए। विचार संकुलता के उस युग में उन्होंने स्पष्ट रूप से वर्गीकृत किया गया था कहा है कि आग्रह, मतांधता या एकांत ही मिथ्यात्व हैं। आग्रह ही सत्य का बाधक तत्त्व है। आग्रह राग है और जहां ___ 1. क्रियावादी-जो आत्मा को पुण्य-पाप आदि का राग है वहां संपूर्ण सत्य का दर्शन संभव नहीं। सत्य विवाद कर्ता, भोक्ता मानते थे। से नहीं, अपितु विवाद के समन्वय से प्रकट होता है। 2. अक्रियावादी-जो आत्मा को अकर्ता मानते थे। दार्शनिक पृष्ठभूमि 3. विनयवादी-जो आचार नियमों पर अधिक बल देते थे। सीमित क्षमताओं से युक्त मानव प्राणी के लिए पूर्ण ज्ञान सदैव ही एक जटिल प्रश्न रहा है। अपूर्ण के द्वारा पूर्ण 4. अज्ञानवादी-इनकी मान्यता यह थी कि ज्ञान से को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से विवाद उत्पन्न होते हैं, अतः अधिक जिज्ञासा में न उतरकर अधिक आगे नहीं जा पाए हैं और जब इसी आंशिक सत्य विवाद-परांग्मुख रहना तथा अज्ञान को ही परम श्रेय 1 को पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो विवाद एवं वैचारिक मानना चाहिए। संघर्षों का जन्म हो जाता है। सत्य न केवल उतना है जितना वैचारिक आग्रह और मतांधता के उस युग में जो दो कि हम जानते हैं, अपितु वह एक व्यापक पूर्णता है। उसे महापुरुष आए, वे थे भगवान महावीर और भगवान बुद्ध। तर्क, विचार, बद्धि एवं वाणी का विषय नहीं बनाया जा स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष.105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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