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________________ "स्यात् कठोर अस्ति : स्यात् मृदुः नास्ति', (स्पर्श का अनुगामी मान लिया गया। ऐसा केवल ध्वनिसाम्य के की अपेक्षा वह कठोर-कड़ा है, नरम नहीं) कारण नहीं हुआ, वरन धार्मिक हठाग्रहों के कारण, जैन 'स्यात् सुगंधवान अस्ति : स्यात् दुर्गंधितो नास्ति', विद्याओं का खंडन करने के गर्हित उद्देश्य से किया गया। (गंध की अपेक्षा सुगंधित है, दुर्गंधित नहीं) 'संशयवाद' कहकर या 'अनिश्चयवाद' का आरोप लगाकर अनेकांत जैसे स्वर्णिम सिद्धांत का उपहास किया गया। 'स्यात् अवक्तव्यः अस्ति' (अनिर्वचनीय है, कैसा है, शब्दकोशों में उसकी हास्यास्पद और अपमानजनक कैसा नहीं--सो एक साथ कहा नहीं जा सकता आदिआदि।) यहां स्यात् शब्द से कथंचित, किसी अपेक्षा से या परिभाषाएं दर्ज की गईं। उदाहरण के लिए वामन आप्टे के संस्कृत-हिंदी शब्दकोश में परिवर्त्य, अनिश्चित, अस्थिर किसी दृष्टि से वस्तु का स्वरूप ऐसा है, यह अभिप्राय और सामयिक जैसे हल्के शब्दों को अनेकांत का पर्यायवाची समझना चाहिए। पदार्थ के इन सारे परस्पर विरोधी गुणधर्मों को कहने के लिए स्याद्वाद आवश्यक है। स्याद्वाद बताया गया, इन पांच शब्दों में क्या एक भी शब्द ऐसा है जो अनेकांत सिद्धांत की सागर जैसी गंभीरता की एक बूंद पदांकित वाणी में ही वह सामर्थ्य है कि अन्य धर्मों का निषेध को भी वहन करने में सक्षम हो? अन्य कोशों में भी स्थिति किए बिना किसी धर्म का कथन कर सके। कुछ ऐसी ही होगी—ऐसा मेरा अनुमान है। इस प्रकार एकांत का प्रतिकार करने में और वस्तु की हमसे भी यह प्रमाद अवश्य हुआ है कि हमने अहिंसा, अनंत धर्मात्मकता को सिद्ध करने में स्याद्वाद शैली ही सत्य, अस्तेय, शील और अपरिग्रह की उपयोगिता को सक्षम है। यह स्याद्वाद 'अनेकांत' का ही शब्दात्मक रूप है। प्रचारित करने के लिए जितना अध्यवसाय किया, उसका यह कहा गया अनेकांत ही है और कुछ नहीं। अनेकांत की शतांश भी अनेकांत की महत्ता को स्थापित या विज्ञापित परिभाषा इतनी ही है कि वस्तु के एक या कुछेक गुण-धर्मों करने के लिए नहीं किया। इस हितकर विद्या के प्रचार की को जानते हुए भी, उसमें निहित अनेक या अनंत अनजाने ओर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया। देश के प्रसिद्ध या अनदेखे गुण-धर्मों को स्वीकार करते चलना। उनका न्यायविद् श्री एन.ए. पालखीवाला ने सच ही कहा था निषेध नहीं करना। इसी अनेकांतमय चिंतन को जब बोलकर कि-'भगवान महावीर के द्वारा परिभाषित अनेकांत और या लिखकर व्यक्त किया जाए तब उसका नाम है अपरिग्रह के जिन लोक कल्याणकारी सिद्धांतों को पूरे देश 'स्याद्वाद। में 'प्राइमरी' की कक्षाओं से पढ़ाने की आवश्यकता स्याद्वाद की मोहर ही वाणी की सत्यता सूचित थी-उसे जैनों ने आलमारियों में बंद करके रखा, यह करेगी। स्यात् चिह्न हमारे अनाग्रह का महावीर के साथ अन्याय हुआ है।' प्रमाण है। इस चिह्न के बिना कहा या हमसे भी यह प्रमाद अवश्य मनुष्य जीवन पाने पर ही हमें लिखा गया पद या वाक्य एकांत या हुआ है कि हमने अहिंसा, मनन और चिंतन की वह शक्ति प्राप्त हठाग्रह प्रेरित हो जाएगा। वह कभी सत्य, अस्तेय, शील और हुई है जो अन्य जन्मों में नहीं मिली प्रामाणिक हो ही नहीं सकेगा। जिस अपरिग्रह की उपयोगिता को थी। इस जीवन की सार्थकता इसी में प्रकार न्यायाधीश के आदेश को प्रचारित करने के लिए जितना है कि हम, कम-से-कम वैचारिक स्तर न्यायालय की सील ही मान्यता प्रदान अध्यवसाय किया, उसका पर मिथ्यात्व, हिंसा और क्रोध-मानकराती है, उसी प्रकार स्याद्वाद की शतांश भी अनेकांत की महत्ता माया-लोभ आदि विकारों की मलिनता सील वक्ता की वाणी को मान्यता को स्थापित या विज्ञापित करने से अपने भावलोक को बचाएं। इन दिलाती है। के लिए नहीं किया। इस पापों से अपने-आप को दूर रखें। इसे बिडंबना ही कहा जाना हितकर विद्या के प्रचार की अनेकांत के माध्यम से यह सहज ओर हमने कभी ध्यान ही चाहिए कि अधिकांश भारतीय साध्य है। ये सारे विकार नित्य हमारे नहीं दिया। दार्शनिकों के द्वारा जैन विद्या के इस भीतर वैचारिक प्रदूषण फैला रहे हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण अंग 'अनेकांत' और यही हमारे 'अंतरंग परिग्रह' हैं। इन 'स्याद्वाद' को सही संदर्भो में समझने का कोई पारदर्शी महारोगों के शमन की जो अमोघ ओषधि भगवान महावीर प्रयत्न प्रायः नहीं किया गया। स्यात् पद को 'शायद' शब्द हमें दे गए हैं उस महौषधि का नाम है 'अनेकांत'। * स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 104 . अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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