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________________ भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण " उपर्युक्त तीन प्रकार के दार्शनिक चिन्तनों में पहला इन्द्रियानुभूतिवादियों या स्वतन्त्र बुद्धिवादियों का था । इन्हें हम बुद्धिवादी इसलिए कह रहे हैं कि चार्वाक शब्द अर्थ हो बुद्धिवादी दार्शनिक है । विरोधियों ने खींचतान कर 'चव' धातु से इस शब्द को निष्पन्न कर 'पिव, खाद, वरलोचने' के साथ इस दर्शन को जोड़ दिया । काशिकाकार स्पष्ट कहते हैं कि 'चार्वी बुद्धिः, तत्सम्बन्धात् आचार्योऽपि चार्वी।' इस दर्शन के आचार्य युक्ति के आधार पर अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन करते थे । इसलिए लोग इनका आदर करते थे। यह भाव काशिका के 'सम्माननोत्सञ्जन आदि सूत्र की वृत्ति में कहा गया है। इसके तीन रूप हैं, प्रत्यक्षवादी, प्रत्यक्षानुमानवादी और संशयवादी । इनकी युक्ति इन्हें परलोक में विश्वास करने से रोकती है इसलिए ये नास्तिक भी हैं। नवीन समय की इनकी परम्परा में देवतात्मा का प्रकृतिवादी दर्शन आता है और साम्यवाद से प्रभावित एम. एन. रे का दर्शन। दूसरा वर्ग है उन दार्शनिकों का जो परलोकवाद में विश्वास करते हैं और इसलिए आस्तिक है । ये श्रमण और वैदिक के भेद से दो वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं । अवैदिक श्रमण दर्शन की पुनः दो धाराएँ हुई, बौद्ध और जैन। जैन दर्शन अपनी अनेकान्त दृष्टि से समस्याओं का समाधान करता हुआ विकास के क्रम में आगे नहीं बढ़ा। किन्तु बौद्ध विचार सौत्रान्तिक एवं वैभाषिक जैसे अनेकत्वंवाद से आगे बढ़ कर विज्ञानवाद के रूप में विकसित हुआ। उस विकासक्रम का पर्यवसान शून्यवाद के अद्वयवाद में दीखता है । शून्यवाद के ही तन्त्रयानी रूप वज्रयान और सहजयान हुए। वैदिक दर्शन अनेक धाराओं में विकसित हुए । सांख्य योग और न्यायवैशेषिक जैसे दर्शन आगम सम्बद्ध हैं । आगमाश्रित हैं मीमांसा और वेदान्त, जिन्होंने क्रमशः कर्म और ज्ञानपक्ष से अपना सम्बन्ध रक्खा । वेदान्त का विकास अनेक रूपों में हुआ । शुद्ध उपनिषदाश्रितवेदान्त अद्वैतवेदान्त है जिसके पुनः दो मुख्य प्रस्थान विवरण और मण्डन प्रस्थान हैं। उपनिषद् वैष्णवागमाश्रित हुए विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद आदि । उपनिषत् शैवागमाश्रित दर्शन पाशुपत, प्रत्यभिज्ञा, शैवसिद्धान्त आदि दर्शनों के रूप में और उपनिषत् शाक्तागमाश्रित अनेक अद्वैतवादी तान्त्रिक दर्शनों के रूप में विकसित हुए । नवीन युग में पाश्चात्यदर्शन का भी प्रभाव पड़ा। वर्गसाँसे प्रभावित श्री अरविन्द का पूर्णाद्वैत और श्री रवीन्द्रनाथ का ब्रह्मसमाज से प्रभावित दर्शन वैष्णववेदान्त के ही उपभेदों के रूप में प्रकट हुए । विवेकानन्द एवं राधाकृष्णन के दर्शनों को अद्वैतवेदान्त के ही अवान्तर भेदों के रूप में ग्रहण करना चाहिए। यह भारतीय दर्शनों का स्थूल किन्तु वस्तुवादी वर्गीकरण परिसंवाद - ३ २४ Jain Education International १८५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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