SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं परिणति अद्वयवादी विचार में हो जाता है जिसके उदाहरण विभिन्न प्रकार के भारतीय अद्वैतवाद हैं। 'ग' वर्ग के अन्तर्गत न्याय प्रधान दर्शनों को एकत्रित किया गया है। परन्तु इस वर्ग में यह आपत्ति हो ही सकती है कि सभी दर्शनों के अपने-अपने न्यायशास्त्र हैं, जैसे शंकर और माध्व दर्शन के । उनका ग्रहण यहाँ नहीं हो पाया है। वर्ग 'ग के अन्तर्गत अनेक योग दर्शनों को रखा गया है। योग दर्शन वस्तुतः पातञ्जलयोग ही है। बौद्ध एवं जैन भी हमारे विचार से उसी से पूर्णतः प्रभावित हैं अतः उनकी स्वतन्त्र सत्ता मानने की आवश्यकता न भी हो सकती है। योग दर्शन ऐसा है जो किसी भी चार्वाकेतर दर्शन को चित्त शुद्धि के लिए व्यावहारिक पक्ष प्रदान करता है। वैदिक सम्प्रदाय के दर्शनों ने तो उसे अपरिवत्तित रूप में मान लिया। बौद्ध और जैनों ने केवल पार्थक्य' दिखलाने के लिए ही इधरउधर थोड़ा-बहुत शाब्दिक परिवर्तन कर लिया है। वर्ग 'घ' के अन्तर्गत वस्तुवादी ( Realist ) दर्शनों को रखा गया है। परन्तु इस वर्ग के कई दर्शन वर्ग 'ग' के भी अन्तर्गत आ गये हैं। दूसरी बात यह है कि यदि एक कोई वर्ग वस्तुवाद ( Realism ) का बनता है तो उसका दूसरा समकक्ष वर्ग प्रत्ययवाद ( Idealism ) का होना उचित प्रतीत होता है जिसमें बौद्ध विज्ञानवाद के प्रकार के दर्शन आ जाते हैं। फिर भी पाश्चात्य दर्शन के अनुकरण पर वस्तुवाद और प्रत्ययवाद में सभी दर्शन अन्तर्भूत नहीं हो पाते हैं। उदाहरण के लिए शंकर का दर्शन उनमें से किसी में भी नहीं बैठता है। उसके लिए वस्तुवादी प्रत्ययवाद ( Realistic Idealism) जैसे किसी भिन्न वर्ग का समावेश करना होगा। अपरंच, उपर्युक्त किसी भी वर्ग में चार्वाकों को कहीं कोई स्थान नहीं मिला है, यद्यपि भारतीय दर्शन में उनका भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए हमारे विचार से भारतीय दर्शन का जो प्राकृतिक रूप है उसको ध्यान में रखते हुए ही वर्गीकरण करना अधिक स्वाभाविक होगा। अनेक ऐतिहासिक प्रभावों के कारण भारतीय दर्शन तीन समानान्तर धाराओं में विकसित हआस्वतन्त्र दर्शन, श्रमण दर्शन और वैदिक दर्शन । ये तीनों मूल दृष्टियाँ हैं और दृष्टि ही दर्शन है-Philosophy is an attitude towords life. इसे हम रुचि भी कह सकते हैं, जिसके कारण दर्शनों के रूप में भिन्नता आती है-रुचीनां वैचित्र्यात् । परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy