SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं (Material classification ) है जो परम्परागत वर्गीकरण के साथ भी सामञ्जस्य रखता है। परन्तु इस संगोष्ठी में जिन मुद्दों को उठाया गया है वे नवीन दृष्टिकोणों से सम्पृक्त प्रतीत होते हैं। वे मुद्दे भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण इसलिए हैं कि आज के युग में विश्लेषणात्मक प्रणाली अधिक उपयुक्त समझी जाती है। आकारिक वर्गीकरण ( Formal Classification ) की विशेषता यह है कि उससे वस्तुतत्त्व का विश्लेषण अधिक परिच्छिन्नतापूर्वक होता है। भारतीय दार्शनिक साहित्य में इस प्रवृत्ति का साधारणतः अभाव रहा है जिसके कारण हमारे दर्शन के विद्यार्थी दार्शनिक विचार के ऐतिहासिक विकास के पक्ष से अपरिचित रह जाते हैं। आज इसकी बड़ी आवश्यकता है कि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में दार्शनिक चिन्तन को भी देखा जाय। मेरे एक मित्र डा. जॉन सी० प्लॉट ने इसी को ध्यान में रखते हुए Global Philosophy ( विश्वदर्शन ) नाम का कई भागों में ग्रन्थ लिखा है। भारतवर्ष में भी इसकी अत्यन्त आवश्यकता है कि उक्त दृष्टिकोण को अपनाया जाय। वह तभी सम्भव है जब दर्शनों की विभिन्न समस्याओं को पृथक् कर उनके विकास क्रम को दृष्टि में रखते हुए उनका अध्ययन किया जाय । इसलिए आज के युग में हमारे लिए यह उतना आवश्यक नहीं है कि भारतीय दर्शनों का हम किस रूप में वर्गीकरण करते हैं जितना यह कि हम किस प्रकार से भारतीय दर्शन की समस्याओं के अध्ययन को नवीन पद्धति से प्रस्तुत करते हैं। पाठ्यक्रमों में इसका ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है। आजकल भी विश्वविद्यालयों में भारतीय दर्शनों का जो अध्ययन चल रहा है उसमें साधारणतया प्राचीन प्रणाली का ही अनुसरण किया जा रहा है। अतः अब आवश्यकता इस बात की है कि दार्शनिक चिन्तन को पहले उसके अंगों में बाँट दिया जाय-जैसे तत्त्वमीमांसा . Ontology ), ज्ञानमीमांसा ( Epistemology ), आचारविज्ञान ( Ethics ) आदि । और उनमें आई हुई समस्याओं का विश्लेषण उनके उद्भव और विकास के क्रम से करते हुए अद्यतन प्रवृत्तियों का भी उनमें प्रदर्शन किया जाय। प्राचीन भारतीय दर्शन के ग्रन्थों में राजनीति दर्शन ( Political Philosophy ) समाज दर्शन ( Social Philosophy ) सौन्दर्य विज्ञान ( Aesthetics) आदि के तत्त्व भरे पड़े हैं, किन्तु उनका संयोजन कर नवीन दृष्टि के अनुसार उन्हें दर्शन की शाखा का रूप नहीं दिया गया। इसके कारण लोग यह समझ बैठे हैं कि भारताय दर्शन का क्षेत्र संकुचित और केवल पारलौकिक है। अतः इसकी बड़ी परिसवा -३ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy