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________________ ७४ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं व्यक्ति के ह्रास का मूल कारण अविद्या है जो मिथ्यादृष्टि है, और उसके विकास का मूल कारण अनास्रव प्रज्ञान का बीज है जो मिथ्यादृष्टि नहीं है। इसलिए ह्रास की सीमाएँ होती हैं, वह प्रकर्ष पर्यन्त नहीं जा सकता है। विकास असीमित और अपरमित होना है। सम्यक समाज–अविद्या अहंभावस्वरूप होती है। वह अनात्मा को आत्मा के रूप में वासित करके अहंता को ग्रहण करती है जिससे आत्मीयता के ग्रहण की भी उत्पत्ति होती है। इससे पर का भी आरोप होता है और निकट और दूरस्थ स्व और पर, मित्र और शत्रु आदि नाना प्रकार की भ्रान्तियों का जाल फैल जाता है। आत्मा तथा आत्मीय के प्रति राग, पर तथा प्रतिकूल के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है, जिससे असमानता का व्यवहार स्वाभाविक होता है। जिसके फलस्वरूप मनुष्य अपने से सम्बन्धित तथा अन्यों के प्रति विभिन्न प्रकार की असमता का व्यवहार करने लगता है। व्यक्ति और समाज दोनों की वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ लोग स्व और पर के विभेद को बनाकर कुटुम्ब, देश, राष्ट्र आदि की सीमाओं में विभक्त होकर असमान और दुःखमय जगत् को स्थापित कर देते हैं। दुःखमय जगत् की समस्याओं के निराकरण के लिए जितने भी सामाजिक व्यवस्थाओं में सुधार होते रहेंगे, वे मात्र तात्कालिक उपाय होंगे-जैसे कि वृक्षों की शाखाओं को काटना आदि। जब तक समाज की व्यवस्थागत त्रुटियों के मूल कारण उसके घटक व्यक्तियों की अविद्या को निर्मल नहीं करेंगे, तब तक स्थायी निराकरण होना सम्भव नहीं है। । अविद्या को निर्मल करने में जव व्यक्ति लग जाता है, तब उस व्यक्ति की तात्कालिक योग्यता भेद के कारण मार्ग के दो भेद हो जाते हैं यथा श्रावकयान तथा बोधिसत्त्वयान । जो समस्त सत्त्वों के उद्धार का उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं ले सकते, वे केवल अपने क्लेशों का प्रहाण करके निर्वाण का कार्य करते हैं । यदि परार्थ न भी हो तो दूसरे की किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाते और अपनी ओर से हिंसा और हानि पहुँचाने की सम्भावना से सदा के लिए दूर हो जाते हैं। जितना उन्होंने क्लेशों का प्रहाण किया, उतने से ही वे सम्पन्न होते हैं। उनमें परार्थ करने की क्षमता बोधिसत्त्व के समकक्ष न रहने पर भी उनका निर्वाण और उनकी बोधि समाज के लिए हितकारक और आदर्श होते हैं। जो व्यक्ति बोधिसत्त्व मार्ग में प्रविष्ट होता है वह परार्थ अर्थात् सर्वसत्त्व के उद्धार का दायित्व अपने ऊपर लेता है। परार्थ दो प्रकार का है-तात्कालिक तथा आत्यन्तिक । तात्कालिक परार्थ अभ्युदय प्राप्त करना है और आत्यन्तिक परार्थ निःश्रेयस प्राप्त कराना है। इन दोनों कार्यों को पृथक्जन अथवा अर्हतपद प्राप्त व्यक्ति नहीं कर सकता। इसके लिए व्यक्ति परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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