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________________ व्यक्ति और समाज-एक विवेचन प्रो० समदोङ् रिनपोछे बौद्ध दृष्टि से व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों के विषय में विशेष लिखने की बात नहीं है । बौद्ध वाङ्मय में पुद्गल, पुरुष, जीव, मनुष्य, सत्त्व योनि आदि शब्दों का व्यवहार होता है, किन्तु व्यक्ति शब्द कहीं जीव या मनुष्य के वाचक रूप में व्यवहार में आया हो, ऐसा मुझे देखने को नहीं मिला। प्रमाण ग्रन्थों में सामान्य और व्यक्ति की चर्चा होती है । परन्तु वह यहाँ प्रासङ्गिक नहीं है क्योंकि उसका प्रयोग जड़ पदार्थों के लिए भी होता है। उसी प्रकार सर्वसत्त्व, सर्व जगत्, प्रजा, जनता, जीव मात्र आदि शब्दों का प्रचुर व्यवहार हुआ है, किन्तु समाज शब्द का प्रयोग मुझको केवल गुह्यसमाज के नाम के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिला। यहाँ पर भी समाज शब्द की परिभाषा कुछ घटकों की अभिन्नता के बोधक रूप में है। अतः इस निबन्ध में पुद्गल की व्यक्ति और सर्वसत्त्व के पारस्परिक सम्बन्ध को समाज मान करके दो एक बातें निश्चित करने की चेष्टा कर रहा हूँ। व्यक्ति-बौद्धों की दृष्टि में सामान्य रूप से व्यक्ति वह होता है जो स्कन्धादिउपादानों को लेकर बढ़ता है, पूर्ण होता है, फिर गलता है और पुनः नये उपादानों को ग्रहण करता है। इस प्रकार पूर्ण होने पर तथा गलने में निरन्तर परिवर्तित पुद्गल को जिसकी सन्तति आद्यन्त दोनों नहीं है अर्थात् निरन्तर गतिशील है, व्यक्ति कहा गया है। इस प्रकार एक सन्तति-प्रवाह के रूप में निरन्तर चलने वाले पुद्गल का स्वरूप क्या है ? इस पर बौद्ध सिद्धान्तों में मतभेद है। वात्सीपुत्रीय लोगों के अनिर्वचनीय आत्मा से लेकर प्रासङ्गिक माध्यमिकों की नाममात्रता वाले व्यक्ति तक की अनेक प्रकार की स्थापनाएँ हुई हैं । वात्सीपुत्रों को छोड़कर शेष सभी बौद्ध व्यक्ति को प्रज्ञप्ति मात्र मानते हैं किन्तु प्रासङ्गिक माध्यमिकों के अतिरिक्त सभी परम्परायें प्रज्ञप्त व्यक्ति की सत्ता को खोजने पर मिलने वाला मानती हैं। इसके अधिष्ठान के रूप में छठवें मनोविज्ञान अथवा आलयविज्ञान आदि की व्यवस्था मिलती है। यहाँ मतभेदों को छोड़कर सामान्य रूप से मनोविज्ञान को ही व्यक्ति मानकर विचार करूँगा। मनोविज्ञान को व्यक्ति मान करके उसकी तीन विशेषताओं पर बौद्ध आचार्यों ने बल दिया हैपरिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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