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________________ व्यक्ति और समष्टि : बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में डा० सिद्धेश्वर भट्ट प्रत्येक दार्शनिक सिद्धान्त अपने युग की देश-काल एवम् परिस्थिति जन्य आवश्यकताओं के फलस्वरूप उत्पन्न चिन्तन का परिणाम होता है। अतः उसका विश्लेषण एवं मूल्यांकन भी उसकी अपनी पृष्ठभूमि के ही आधार पर होना चाहिए। इसी दृष्टिकोण से बौद्ध चिन्तन परम्परा में व्यक्ति एवं समाज के स्वरूप एवम् उनके पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार करना समीचीन होगा। प्रस्तुत लेख तीन खण्डों में विभक्त किया जा सकता है। सर्वप्रथम व्यक्ति के स्वरूप का विश्लेषण, तदनन्तर समाज के स्वरूप का विश्लेषण और अन्त में उनके पारस्परिक सम्बन्धों का विश्लेषण । इससे पूर्व की हम इस विश्लेषण की ओर प्रवृत्त हों, कतिपय बौद्ध दार्शनिक अभ्युपगमों की ओर ध्यान देना आवश्यक होगा। ___ बौद्ध दार्शनिक चिन्तन का प्रादुर्भाव आनुभविक जगत में अनिवार्य रूप से व्याप्त दुःख के निदान हेतु होता है। गौतम बुद्ध ने समस्त दुःखों के मूल में तृष्णा को हेतुरूप माना है और इस तुष्णा के आधार में अनित्य वस्तुओं को नित्य मान कर उनके प्रति आसक्त होने की मनोवृत्ति को समस्त सांसारिक प्रक्रिया का प्रारम्भ बिन्दु माना है। उनके अनुसार समस्त आनुभविक तथ्य अनित्य हैं, क्योंकि वे सांधातिक हैं । यद्यपि कुछ ऐसे धर्म हैं जैसे आकाश तथा निर्वाण जो सांघातिक नहीं हैं, जिन्हें असंस्कृत धर्म के नाम से अभिहित किया जाता है । अतः उन्हें अनित्य नहीं माना जा सकता। परन्तु शेष धर्म निश्चित रूप से संस्कृत होते हैं और परिणाम स्वरूप अनित्य होते हैं । वस्तुतः संस्कृत होने और अनित्य होने में नियत सहचार है। संघात की उपस्थिति प्रतीत्यसमुत्पन्न होती है। निश्चित हेतु एवम् प्रत्यय के आधार पर अलग-अलग विशिष्ट संघातों की उत्पत्ति होती है और उन हेतु-प्रत्ययों के न रहने पर संघात भी विद्यमान नहीं रहते । जिन्हें हम तत्त्व या पदार्थ की संज्ञा देते हैं, वे धर्मरूप ही हैं। जिनमें न तो स्थायित्व है और न आधार आधेय भाव ही है । यहाँ पर एक प्रश्न विचारणीय है कि क्या अनित्यतावाद एवम् क्षणभंगवाद में भेद किया जाना चाहिए ? सम्भवतः बौद्ध चिन्तन में परम्परा के प्रारम्भिक चरण में परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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