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________________ व्यष्टि और समष्टि : बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में ४९ स्वारस्य, अर्थवत्ता, प्रासङ्गिकता आदि का आधान करने के उद्देश्य से हम किसी बात को अपना आधार केन्द्र मान लेते हैं। इसी केन्द्र की एक परिधि में समग्र अनुभवों को समेट कर देखना हमारा स्वभाव बन जाता है। समाजवाद, लोकतन्त्र, साम्यवाद, पूँजीवाद आदि के साथ-साथ आत्मवाद, अनात्मवाद, अद्वैतवाद, बहुत्ववाद आदि अनेक ऐसे केन्द्र हैं, जिनकी परिधि में हम अनुभवों को लाकर रखने का प्रयत्न करते हैं। ये केन्द्र क्यों चुने जाते हैं ? क्यों किसी को केन्द्र मान लिया जाता है ? इसका सीधा और सही उत्तर सिर्फ इतना है कि ये हमें अच्छे लगते हैं। और चूँकि ये पसन्द आते हैं इसलिए इनके पक्ष में हम अनेक युक्तियाँ, तर्क जुटा लेते हैं। इस तरह दृष्टि का चयन पहले हो जाता है और इस दृष्टि के समर्थन के कारण बाद में उद्भावित कर लिए जाते हैं। यदि ऐसा न हो तो सारी युक्तियों और तर्कों के निष्कर्ष एक ही बिन्दु पर न मिल पायेंगे, हर युक्ति या तर्क अलग-अलग दिशा की ओर ले जायेगी। इस तरह दष्टि वह संयोजक तत्त्व है जिसके बल से अनुभवों, विचारों और व्यवहार को इदन्ता प्राप्त होती है, उनकी एक निश्चित पहचान प्राप्त होती है। दृष्टि-भेद के कारण एक ही प्रकार के अनुभव के अलग-अलग अर्थ प्राप्त होते हैं । उदाहरण के लिए गरीबी को लें। गरीबी का अनुभव जिस प्रकार एक देशकाल में होता है वैसा ही अनुभव अन्यत्र भी होता है। परन्तु कभी उस अनुभव को पूर्वजन्मार्जित कर्मफल के रूप में, कभी पूँजीपतियों की शोषण-वृत्ति के परिणाम के रूप में और कभी उत्पादक के प्रयत्नों के सहयोग की कमी के परिणाम के रूप में देखा जाता है। एक ही अनुभव की भिन्न व्याख्याएँ और भिन्न-भिन्न कारणों से उसे जोड़कर उसे अर्थ देना दृष्टि-भेद के कारण ही सम्भव हो सकता है, अन्य कोई भेदकतत्त्व नहीं दिखाई देता । यदि यह सम्भव हो कि किसी अनुभव को सिर्फ अनुभवबलेन व्याख्यात किया जाए, उनपर किसी अर्थ को आरोपित न किया जाए, तो कदाचित् दृष्टि-भेद-जनित मतभेद दूर हो सकें। इसी तरह आरोपित अर्थ का आरोप के अधिकरण से पार्थक्य दिखाते हुए अर्थ की आरोपितता बतला दी जाए तो भी मतभेद को आधारहीन सिद्ध किया जा सकता है । इसी बात का एक परिणाम यह भी निकल सकता है कि सभी दृष्टियाँ निस्सार हैं, अतः दृष्टिगत भेद के आधार पर जो लड़ाई लड़ी जाती है, वह वास्तव में छाया-युद्ध है जिसको हम वास्तविक समझ लेते हैं। क्या सर्व-दृष्टि-प्रहाण सम्भव है ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए दो सम्भावनाएँ सामने आती हैं। एक सम्भावना तो यह है कि अलग-अलग तत्तत् दृष्टि के दृष्टित्व को किसी एक अबाधित तत्त्व का प्रतिबिम्ब मान लिया जाए, दूसरी सम्भावना यह है कि तत्तत् दृष्टि को दूसरी दृष्टि से बाधित दिखाकर दृष्टि सामान्य को परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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