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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ अद्वैतवादी दर्शन में विधिमुखेन व्यष्टिगत ऐक्य को साकार करने में तथा निषेधमुखेन व्यष्टि के ऐक्य-विरोधी मूल्यों, कर्तव्यों आदि का तिरस्कार करने में पर्यवसित होता है। आज हम व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को लेकर विवाद करते हैं। इस विवाद के पीछे छिपा दार्शनिक प्रश्न व्यष्टि और समष्टि के बारे में अभ्युपगत दृष्टि से जुड़ा हुआ है। जनतन्त्र में किस हद तक व्यष्टि को समष्टि पर हावी होने दिया जाये या किस हद तक व्यष्टि को समष्टि की परिधि से बाहर घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता दी जाये, इन प्रश्नों का समाधान निष्पक्ष रूप से नहीं किया जा सकता, क्योंकि हर समाधान के नीचे कोई दष्टि छिपी बैठी है। व्यक्ति-पूजा, देश के एकमात्र नेता होने की स्वीकृति, आदि बातें व्यष्टि को समष्टि पर आधिपत्य जमाने का अधिकार देती हैं और लोकतन्त्र के स्थान पर व्यक्तितन्त्र की स्थापना की ओर ले जाती हैं। अधिनायक का, चाहे वह हिटलर जैसे व्यष्टि के रूप में हो या जनवादी समाज या व्यष्टि-समूह के रूप में हो, जन्म व्यष्टि या व्यष्टि-समूह का समष्टि पर आधिपत्य जमाने के प्रयत्नों में होता है। जहाँ समष्टि को अद्वैत तत्त्व से परिपूरित देखने की दृष्टि होती है वहाँ अधिनायक का जन्म आसानी से हो जाता है । क्योंकि अधिनायक अपने आपको उस ऐक्य का रक्षक या ऐक्य का मूर्तिमान स्वरूप सरलता से सिद्ध कर सकता है। इसके विपरीत व्यष्टि यदि आसानी से समष्टि को परिधि के बाहर जा सकता है तो भय है कि कहीं समष्टि का लोप न हो जाए, क्योंकि व्यष्टि के स्वातन्त्र्य के नाम पर हर सम्भव उच्छ ङ्खलता और अराजकता सही करार दी जा सकती हैं। दलों का आए दिन परित्याग, दूसरे दलों के साथ गठबन्धन, सही-गलत हड़तालों के साथ तोड़-फोड़ तथाकथित नियमानुसार काम (मानो सामान्य दिनों में नियम के विरुद्ध काम किया जाता है) आदि व्यष्टि के समष्टि की सीमा से बाहर हो जाने के परिणाम हैं। इस प्रकार दोनों अवस्थाओं में व्यष्टि या समष्टि के स्वरूप के कारण विकृतियाँ नहीं उत्पन्न होतीं, बल्कि उनके स्वरूप के पीछे अभ्युपगत दृष्टियों के कारण ही बुरे परिणाम मिलते हैं। अतः व्यष्टि और समष्टि के बारे में वर्तमान में उठाये गये प्रश्नों का सीधा सम्बन्ध दृष्टि से है। समस्याओं के समाधान में दृष्टि तथा दृष्टिप्रहाण का स्वरूप दष्टि क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देना आसान नहीं है, क्योंकि दष्टि को परिभासित करने के पीछे भी एक अन्य दृष्टि छिपी हो सकती है। इसलिए दृष्टि की परिभाषा देने के प्रयत्न के स्थान पर यदि दृष्टि के कार्य का विवरण दिया जाए तो वह अधिक उपयुक्त होगा। अपने अनुभवों की व्याख्या करने या उनमें तारतम्य, परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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